लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> कृपा

कृपा

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9812
आईएसबीएन :9781613016183

Like this Hindi book 0

मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


संसार के न्यायाधीश अपराधी को उसके दण्ड की सजा जब फाँसी के रूप में सुनाते हैं, तो उस व्यक्ति के प्राण ले लिये जाते हैं और भगवान् राम भी दण्ड देते हुए ताड़का के प्राण ले लेते हैं। तो फिर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से हमारे सामने आता है कि क्या सांसारिक न्याय-दण्ड पद्धति और भगवान् राम की न्याय एवं दण्ड की पद्धति दोनों एक जैसी ही है या उनमें भिन्नता भी है? गोस्वामीजी इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् राम के न्याय और दण्ड का वह पक्ष प्रस्तुत करते हैं जो सचमुच ही बड़ा विलक्षण है। इस प्रसंग में गोस्वामीजी कहते हैं कि-

चले जात मुनि दीन्हि देखाई।
सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।
एकहि बान प्रान हरि लीन्हा।1/208/5,6


प्रभु दण्ड तो देते हैं पर उसमें विलक्षणता यह है कि उस दण्ड में प्रभु की कृपा भी साथ-साथ दिखायी देती है।

संसार में कृपा की बात आने पर उसके कारण के रूप में उससे जुड़ी हुई दीनता भी दिखायी देती है। इस प्रकार कृपा और दीनता का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। कृपा जब होगी तो दीन पर ही होगी। हमें दीन कहने पर हमारे सामने बहुधा धन-संपत्ति का न होना ही नहीं है। कुछ लोग सब कुछ होते हुए भी, क्योंकि वे अत्यन्त विनम्र और निरहंकारी होते हैं अत: अपने आपको असमर्थ और दीन मानते हैं। तो दीन पर कृपा करने की बात ठीक है। पर गोस्वामीजी ताड़का के प्रसंग में कहते हैं कि भगवान् राम ने ताड़का को दण्ड तो दिया-

एकहि बान प्रान हरि लीन्हा।


पर –

दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।1/208/6


उसे दीन समझकर अपना पद प्रदान कर दिया। पूछा जा सकता है कि ताड़का दीन कैसे है?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book