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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


श्री भरत तो इस मंगलमय दृश्य का कुछ और ही अर्थ ले रहे हैं। पशुपक्षियों का यह वैर-त्याग, वृक्षों के फल तथा सुमनावली उनके हृदय में यही भाव उत्पन्न करता है कि बिना प्रभु सामीप्य के यह शोभा आ ही नहीं सकती है। अन्वेषणशील गोपियों ने भी एक लता में अद्भुत पुष्प लगा देखकर यही निर्णय किया था।

पूछौ री इन लतनि  फूलि रहीं फूलन  सोई।
बिना पिया के परस कतहू अस फूल न होई।।

प्रेमियों की पारखी दृष्टि में प्रिय सामीप्य छिपा नहीं रह सकता। श्री भरत की उत्सुकता देखकर राम-सखा ने वहीं से प्रभु-आश्रम का मनोरम दृश्य उन्हें दिखाया। “नाथ! देखिए उस विशाल वटवृक्ष को! जिसके चारों ओर रसाल और तमाल के चार पादप सुशोभित हैं। वटतरु तो रामभद्र को अतीव प्रिय है। वह है भी इस योग्य क्योंकि उसके नीलवर्ण के किसलय अत्यन्त सघन हैं। नील रंग के पत्र और रक्त वर्ण के फलों को एकत्र देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो अन्धकार और प्रकाश का एकत्रीकरण करके ब्रह्मा ने समग्र सुषमा समेटकर इसका निर्माण किया है। प्रत्येक ऋतु में वह पादप सुखद है। उसी वृक्ष के निकट श्वेत-सलिला-पयस्विनी मन्थर गति से बह रही है। पयस्विनी पुलिन पर प्रभु की रम्य कुटी निर्मित है। कुटीर के चारों ओर जगदम्बा जानकी और श्री लक्ष्मण ने तुलसी तरु को पंक्तिबद्ध लगाया है। वट-तरु के नीचे विशाल वेदी बनी हुई है, जिसका निर्माण स्वयं श्री किशोरीजी के करकमलों द्वारा हुआ है। युगल सरकार मुनिबृन्द समेत वहाँ नित्य सत्संग करते हुए कथा-पुराण-इतिहास का श्रवण करते हैँ।”

निषादराज की वाणी सुनते और वटवृक्ष को देखते ही श्रीभरत जी के विशाल नेत्रों में आँसू भर आये। मानो आँसुओं की पुष्पांजलि उस वृक्ष के लिए अर्पित करते हुए मन-ही-मन कह उठे – “धन्य हो वटवृक्ष! तुम-सा भाग्यवान कौन होगा? अभागी अयोध्या का परित्याग करके अखिल लोकाश्रय तुम्हारे आश्रम में निवास कर रहे हैं। तुम्हारा पल्लवित, पुष्पित, फलित होना आज सफल हो गया। सुरतरु भी आज तुम्हारे भाग्य से ईर्ष्या करते हैं। तुम सच्चे अनुरागी हो।” इसके पश्चात् दोनों भाई, दण्डवत करते हुए आश्रम की ओर चले। अहा! यह तो प्रभु के चरण-चिह्न है। ध्वज, कुलिश, अंकुश, कमल अपना परिचय दे रहे हैं। श्री भरत के हर्ष का क्या ठिकाना? मानो दरिद्र को पारस पत्थर मिल गया हो। उस पावन धूलि को माथे पर चढ़ाते हैं। हृदय और नेत्रों में लगा सकते हैं। उन्हें तो उसमें रघुवर-मिलन का ही आनन्दानुभव हो रहा है। ठीक ही तो है, यह सुख प्रभु के यहाँ नहीं – वहाँ यदि प्रभु के चरणों में पड़े रहना चाहें तो भला वे कैसे रहने पायेंगे? राघवेन्द्र की दृष्टि में उनका स्थान हृदय है – चरण नहीं। उनके निकट पहुँच कर तो मन की मन ही में रह जाती है। अच्छी तरह आँख उठाकर देख भी नहीं पाते। स्वयं वे कहते हैं–

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