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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


हरषहिं   निरखि  राम  पद अंका।
मानहुँ   पारसु    पायउ    रंका।।
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं।
रघुबर  मिलन  सरिस सुख पावहिं।।
देखि भरत  गति अकथ   अतीवा।
प्रेम   मगन मृग  खग जड़ जीवा।।
सखहि  सनेहु  बिबस  मग  भूला।
कहि  सुपंथ   सुर  बरषहिं फूला।।
निरखि   सिद्ध  साधक   अनुरागे।
सहज    सनेहु   सराहन   लागे।।
होत न   भूतल   भाउ भरत को।
अचर  सचर चर अचर  करत को।।

वास्तव में इस सहजानुराग के कारण श्री भरत के प्रेम की तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती। सिद्धों के लिये भी यह प्रेम सर्वथा अप्राप्य है। “रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्यशबदान्” से जिस अनुराग का उदय होता है, उसे प्रेम नहीं प्रेमाभास कहना उपयुक्त होगा। इसमें इन्द्रियजन्य लालसा और भोग वासना ही प्रेरक है। इस तरह तो हम नित्य न जाने कितनी वस्तुओं पर मुग्ध होते रहते हैं और उसके उपभोग के लिए व्याकुल होते हैं। भोग के फलस्वरूप उसमें क्षणिक तृप्ति का भी अनुभव होता है। महर्षि नारद ने अनुरागोदय के साधन के रूप में माहात्म्य-ज्ञान श्रवण की आवश्यकता का उल्लेख किया है। “सा तु माहात्म्यज्ञानपूर्वम्” पर यह प्रक्रिया भी संसार के प्रति महत्त्वबुद्धि और आकर्षण का नाश करने के लिए है। क्योंकि जब तक विश्व की किसी वस्तु में महत्त्वबुद्धि होगी, तब तक उससे राग भी अवश्य होगा और जब तक अन्यत्र राग है, तब तक प्रभु में पूर्ण प्रेम होना असम्भव है। प्रियतम के माहात्म्यज्ञान-श्रवण  से लौकिक मह्त्त्वबुद्धि का नाश हो जाता है। उसके पश्चात्  इस माहात्म्यज्ञान की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती। दूसरी ओर माहात्म्य-श्रवण से भोगबुद्धि का भी नाश होता है। उनके कोटि कन्दर्प-दर्प-दलन रूपसुधामाधुरी का वर्णन सुनकर भोगेच्छा का उदय नहीं? अपितु उनके चरणों में अर्पित हो जाने की भावना बलवती हो उठती है। माहात्म्य-श्रवण में यद्यपि उनकी सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता का वर्णन वह सुनता है, पर उनकी कोमलता, सुकुमारता हृदय पर इतना प्रभाव डालती है कि उनसे कोई कार्य लेने की इच्छा शेष नहीं रह जाती। प्रेमी के हृदय में उसकी सर्वशक्तिमत्ता की अपेक्षा पाटलपुष्पाधिक सौकुमार्य का ही चिरस्थायी प्रभाव रहता है। अपितु इसे यों कहना चाहिए कि उनका सौकुमार्य ज्ञान, सर्वशक्तिमत्ता को इतना ढक लेता है कि प्रेमी के हृदय से उसकी सर्वथा विस्मृति हो जाती है। इसलिए वह तो उसकी सेवा, उनको सुखी देखने की भावना में ही सर्वथा निमग्न रहता है। इस प्रकार “माहात्म्यज्ञान-श्रवण” रूप साधना के द्वारा सिद्ध प्रेमी भी सर्वथा निष्काम हो जाता है। प्रेम और कामना की एकत्र स्थिति असम्भव है।

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