धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
किन्तु श्री भरत का सहजानुराग इसकी अपेक्षा भी विलक्षण है। क्योंकि विस्मृत या लुप्त वस्तु का ही साधनों के द्वारा प्राकट्य होता है। पर श्री भरत के जीवन में विस्मृति का कोई स्थान ही नहीं। एक क्षण के लिए भी प्रभु उनके हृदय से पृथक् नहीं होते। अतः साधन द्वारा प्रेम प्राकट्य का वहाँ कोई प्रयोजन नहीं। उनके द्वारा साधना लोकसंग्रह और सहज रूप से होती रहती है। इस प्रकार उनका आचरण साधक-सिद्ध दोनों के लिए अनुकरणीय है। नित्य सिद्ध प्रेमी श्री भरत का दैन्य और अनुराग इतिहास में अद्वितीय है। वे प्रभु के चरणों में रहे या कण्ठ से लग जाये।
प्रियतमहृदये वा खेलतु प्रेमरीत्या।
वदयुगपरचर्या कामिनी वा विधत्ताम्।।
सदा चरणों में ही पड़े रहने की आकांक्षा वाला भक्त जिसने कभी भी अपने अधिकार का प्रयोग न किया – अधिकार होते हुए भी जिसने अपनी कोई इच्छा प्रभु से न मनवाई हो, वह हैं “श्री भरत”। सिद्ध-साधक कहने लगे, अहा! हम तो प्रभु के वन आगमन का कारण धर्म-रक्षा और पितृ-आज्ञा पालन ही समझते थे, पर भरत का दर्शन होने पर वास्तविकता का ज्ञान हुआ। रघुवीर ने प्रेमामृत को प्रकट करने के लिए ही यह लीला की है। राघवेन्द्र की महती कृपा से ही हम सबको यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।
पेम अमिय मन्दरु विरहु भरत पयोधि गंभीर।
मथि प्रकटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।
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अखिल लोक-मोहन आज प्रेमी बने बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं अपने ‘भरत’ की। विशाल खंजन जैसे चंचल नयन बार-बार छटपटा उठते हैं, किन्तु मार्ग की ओर देखकर निराश हो जाते हैं। कहाँ गई आज सर्वज्ञता! जिसकी प्रतीक्षा है, वह तो निकट आ चुका है। प्रभु की बाँकी-झाँकी का दर्शन कर रहा है। पर उसे वे न देख सके। आज तो कुछ उल्टी रीति हो गई। छिपने की कला में तो नटनागर ही निपुण थे। भक्त की प्रेममयी व्याकुलता का आनन्द कहीं लता-ओट से लेते हैं, तो कहीं तरु-ओट से। वह चिन्तित होकर अधीर हो उठता है, तो इनके अधरों पर हास्य की मन्द रेखा बिजली-जैसी चमक जाती है। किसी ने कहा होगा हे निठुर शिरोमणे! तुम प्रतीक्षा की व्याकुलता क्या जानो तुम्हें क्या पता तुम्हारे बिना मेरा पल कैसे व्यतीत हो रहा है।
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