धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
युगायितं निमेषेण चक्षुणा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत सर्वं गोविन्दविरहेणव मे।।
पर आज तो वह स्वयं ही प्रतीक्षा भरे नयनों से पंथ निहार रहा है। प्रेमी भी आकर कुछ दूर से उनका दर्शन कर रहा है। वह भी पीछे से ही आया है – पर उसके हृदय में छकाने का भाव नहीं। वह तो अपनी नम्रता, दीनता से भयभीत निःशब्द पग रखता हुआ पीछे से आता है। सामने आने में उसके पग काँपते हैं, पर लक्ष्मण तो प्रभु के ठीक सामने ही बैठे हुए हैं –
देखे भरत लखन प्रभु आगे।
वे भी नहीं देख पाए, भैया भरत को। क्यों? अहा! वह न केवल पृष्ठभाग से आया है, अपितु विजनवन-पादपों की ओट में अपने को छिपाए हुए है। उसकी इच्छा के बिना उसे कोई देख भी कैसे पाता! इसीलिए वे नहीं देख पाए इस “सखा संयुक्त मनोहर जोटे को” –
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।
पर प्रेमी सब कुछ देख रहा है। अपलक नयनों से अपने श्यामसलोने को निहार रहा है। भला सामने से आने पर देख पाता इस भाँति? संकोच से आँखें गड़ जातीं भूमि की ओर। प्रेमी के लिए दर्शन भी एक कठिन समस्या है। एक प्रेमी तो कह उठा – ‘अरी निगोड़ी आँखों, तुम्हारे लिए सुख बनाया ही नहीं गया है। उन्हें देखे बिना रहा नहीं जाता है और सामने आने पर देखते नहीं बनता’ –
इन दुखिया अँखियान को सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनैं न देखते बिन देखे अकुलाहिं।।
पर प्रेमी बड़े चतुर होते हैं –उपाय निकाल ही तो लिया और दर्शनानन्द का अनुभव करने लगे चुपचाप। मस्तक पर जटा सुशोभित है। जान पड़ता है मानो काम ही सुवेश में पद्मासनस्थ बैठकर कथा श्रवण कर रहा है। कटि में बल्कल वस्त्र धारण किए हुए हैं। निषंक कसा हुआ है। हाथ में बाण और स्कन्ध पर धनुष सुशोभित है। यह ध्यान रहे प्रेमी पृष्ठ भाग में खड़ा है।
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