धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे।।
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधे। तून कसें कर सरुधनु काँधे।।
वेदी पर मुनि साधु समाजा। सीय सहित राजत रघुराजू।।
पर हठीला कवि इतने से क्यों सन्तुष्ट होने लगा – वह सामने की भी झाँकी का आनन्द लेना चाहता है। उसका अव्याहत गति है और वह सम्मुख खड़ा होकर चित्रण करने लगा –
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत।।
दो. – लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंद।
ज्ञान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानन्द।।
दोनों झाँकियों में अन्तर है। जहाँ कुछ क्षण पहले धनुष कन्धे पर था अब कर-कमलों में सर सहित लालित हो रहा है। मुख से हास्य की रेखा प्रस्फुटित होना चाहती है। यह युद्ध और प्रसन्नता की मुद्रा का एकत्र निवास कैसा? ‘सरचाप’ तो युद्ध-क्षेत्र में स्कन्धों से आकर कर-कमलों में लालित होता है। दूसरी ओर युद्ध की कोपमुद्रा नहीं – मुख पर हँसी खेल रही है। कवि श्री किशोरी जी की ‘कृपा-कटाक्षलब्ध निर्मल मति’ से जान लेता है कि या हास्य को किसी का स्वागत करने के लिए है। पर साथ ही युद्ध भी तो करना है किसी से, उससे जो भरत-हृदय में घुसकर अधिराकर जमाने की चेष्टा में संलग्न है “जिय की जरनि।” वह हृदय तो केवल प्रभु का ही विश्रामस्थल है। उसमें अन्य का प्रवेश कैसे सहन किया जा सकता है। येन केन प्रकारेण तो उसे निकालना ही है। अन्वेषण हो रहा है उसका। पर वह तो छिप गया कहीं जाकर। भागा हुआ शत्रु क्षमा का पात्र अवश्य है, पर प्रभु तो इसे क्षमा करने के लिए तत्पर नहीं है। उसे खोजकर मारेंगे, जिससे फिर लाड़ले भरत को कभी पीड़ा न पहुँचा सके। इस दृष्टि और मुस्कान के द्वारा जो अमृतमयी है वे भरत को देखने के लिए आतुर हैं।
‘रघुचन्द्र’ नाम भी कवि की काल मर्मज्ञता का परिचायक है। इस समय प्रभु ‘रवि’ बनकर प्रकाश वितरण नहीं कर रहे हैं क्योंकि सूर्य तो जलन को बढ़ाने वाला है। वे चन्द्रमा के समान शीतलता और आह्लाद का दान कर रहे हैं। अतः ‘रघुचन्द्र’ हैं।
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