धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
अत: समन्वय साधना को जीवन में चरितार्थ करने वाले जिस पात्र की हमें अपेक्षा है, उसकी उपलब्धि भरत के रूप में हो जाती है। मानस के विविध प्रसंगों में हम उनकी इस विशेषता का दर्शन कर सकते हैं और इसका ही स्वाभाविक परिणाम है मानस के समस्त पात्रों में भरत के चरित्र की उत्कृष्टता। अनेक पात्रों में उत्कृष्टता होते हुए भी एकांगिता है। भरत का चरित्र सन्तुलित और पूर्ण है। अयोध्या काण्ड जो साहित्य और भावनात्मक दोनों ही दृष्टियों से मानस का सर्वश्रेष्ठ अंग है वस्तुत: भरत की गुण-गरिमा का गायक है। भरत की सराहना में वन्दना प्रसंग में लिखित पंक्ति ‘जासु नेम ब्रत जाय न बरना’ भरत और अयोध्या काण्ड दोनों के प्रति समान रूप से उद्धृत की जा सकती है।
भरत के व्यक्तित्व का दर्शन हमें ‘राम वन गमन’ के पश्चात् ही होता है। उसके पहले उनका चरित्र-मूक समर्पण का अद्भुत दृष्टान्त है जिसे देखकर कुछ भी निर्णय कर पाना साधारण दर्शक के लिये कठिन ही था। इसी सत्य को दृष्टिगत रख कर गोस्वामी जी ने ‘राम वन गमन’ के मुख्य कारण के रूप में भरत प्रेम-प्राकट्य को स्वीकार किया। जैसे देवताओं ने समुद्र-मन्थन के द्वारा अमृत प्रकट किया था ठीक उसी प्रकार राम ने भी भरत-समुद्र का मंथन करने के लिए चौदह वर्षो के विरह का मन्दराचल प्रयुक्त किया। और उससे प्रकट हुआ - राम प्रेम का दिव्य अमृत।
प्रेम अमिय मन्दर विरह भरत पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटे सुर साधु हित कृपासिन्धु रघुबीर।।
प्रस्तुत पुस्तक में इसी ‘अमृत-मन्थन’ की गाथा है। शैली-भावना प्रबल है और एक विशिष्ट भावस्थिति में लिखी भी गई है।
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