धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
दोष देहिं जननिहिं जड़ तेई।
जिन्ह गुरु साधु सभा नहिं सेई।।
क्या इससे उनकी सरलता व शिष्टाचार नहीं सूचित होता। बुद्धि ने कहा – “तुम्हारे पास है कोई प्रमाण कि तुम्हें वे कुटिल समझते हैं?” मन ने कहा - “अवश्य है। कार्य ही इसका प्रमाण है। मुझे साथ न ले जाकर लक्ष्मण को साथ में ले जाना सूचित करता है कि उन्हें मुझ पर विश्वास नहीं। अहा ! धन्य है लघु भ्राता लक्ष्मण ! वे सच्चे चरणानुरागी हैं। इसी से तो साहचर्य के योग्य माने गये हैं” –
अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंद अनुरागी।।
कपटी कुटिल मोहि प्रभु चीन्हा। ताते नाथ संग नहिं लीन्हा।।
बुद्धि भी सहज में हार मानने वाली नहीं। उत्तर दे दिया – “उन्होंने तो कह ही दिया था कि तुम जैसा कहो, मैं करूँगा। तुमने स्वयं साथ में जाने का निर्णय नहीं दिया, तो वे क्या करते?” मन घबराया – “हाँ ! बात तो तर्क-संगत थी।” किन्तु तभी स्मरण हो आया मन को एक घटना का – “हाँ ! मैं जान गया वे क्यों नहीं आये। भले ही प्रारम्भ में मैंने कुटिलता न की हो। किन्तु जब प्राणप्रिय लक्ष्मण के प्राण संकट में थे, भक्तराज हनुमान औषधि लेकर जा रहे थे, तब मैंने क्या किया। दो-दो भक्तों का प्राणाहारी मैं बनने जा रहा था। क्या यह साधारण अपराध है। यदि प्रभु मेरी इस करनी पर ध्यान दें, तो एक कल्प नहीं, सौ करोड़ कल्प में भी मेरा उद्धार न होगा” –
जौं करनी समुझै प्रभु मोरी। नहि विस्तार कलप सत कोरी।।
किन्तु तभी स्मरण हो आया भाववश्य प्रभु के स्वभाव का।
जन अवगुन प्रभु मान न काऊ।
दीन बन्धु अति मृदुल सुभाऊ।।
मोरे जियँ भरोस दृढ़ सोई।
मिलिहहिं राम सगुन सुभ होई।।
राघव के करुणामय कोमल स्वभाव का स्मरण होते ही श्री भरत का हृदय आनन्दमग्न हो गया। अहा ! मैं भी कैसा कुविचारी हूँ, जो अपनी ओर देखता हूँ। मैं चाहे जैसा होऊँ, किन्तु वे तो करुणापूरित हैं। अतः वे मुझ कपटी पर भी कृपा करेंगे ही।
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