धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
लषण राम सीतहिं अति प्रीती।
निसि सब तुमहिं सराहत बीती।।
और आज उनका प्रत्यक्ष दर्शन कर मुनि कृतकृत्य हो गए। प्रंशसा से भी अधिक भावमय महापुरुष का दर्शन हुआ और उनके मुख से निकल पड़े यह शब्द –
भरत धन्य तुम जसु जग जयऊ।
और भक्त स्तुति का फल भी तत्काल हुआ। प्रेममग्नता –
कहि असि प्रेम मुनि भयऊ।
सारा प्रयाग धन्य-धन्य की ध्वनि से गूँज उठा। चारों ओर प्रेम-सरिता उमड़ कर लोगों को आप्लावित करने लगी। श्री भरत का अनुराग के कारण कण्ठ रुद्ध हो गया। विशाल नेत्र सजल हो उठे। पर हृदय विहारी तो प्रेमधन के द्वारा स्नेह रस की वर्षा करना चाहते थे। ‘प्रेमतत्त्व’ का निरूपण कराना चाहते थे। वे मौन कैसे रहने देते। वीणा-विनिन्दक कण्ठ से करुणा और व्यथा से पूरित एक रागिनी फूट पड़ी। वह कविता नहीं भरत के हृदय में चिर-संचित व्यथा थी, जो मुखर होकर प्रेमतत्त्व की सच्ची व्याख्याता बनी।
एहि सम अधिक न अघ अधमाई।।
तुम्ह सर्वग्य कहउँ सतिभाऊ।
उर अन्तरजामी रघुराऊ।।
मोहिं न मातु करतब कर सोचू।
नहि दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू।।
नाहिन डरु बिगरहि परलोकू।
पितहु मरन कर मोहि न सोकू।।
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए।
लछिमन राम सरिस सुत पाए।।
राम विरहँ तजि तनु छनभंगू।
भूप सोच कर कवन प्रसंगू।।
राम लषन सिय बिनु पग पनहीं।
करि मुनि वेष फिरहिं बन बनहीं।।
दो. – अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरखा बात।।
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