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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

धार्मिक मन्थन


अब फिर ईसाई मित्रो के साथ अपने सम्पर्क पर विचार करने का समय आया हैं।

मेरे भविष्य बारे में मि, बेकर की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। वे मुझे वेलिंग्टन कन्वेन्शन में ले गये। प्रोटेस्टेंट ईसाइयों में कुछ वर्षों के अन्तर से धर्म-जागृति अर्थात आत्मशुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न किये जाते हैं। ऐसा एक सम्मेलन वेलिंग्टन में था। उसके सभापति वहाँ के प्रसिद्ध धर्मनिष्ठ पादरी रेवरेंड एंड्रमरे थे। मि. बेकर को यह आशा थी कि इस सम्मेलन में होनेवाली जागृति, वहाँ आने वाले लोगों के धार्मिक उत्साह और उनकी शुद्धता की मेरे हृदय पर ऐसी गहरी छाप पड़ेगी कि मैं ईसाई बने बिना रह न सकूँगा।

फिर मि. बेकर का अन्तिम आधार था प्रार्थना की शक्ति। प्रार्थना में उन्हें खूब श्रद्धा थी। उनका विश्वास था कि अन्तःकरण पूर्वक की गयी प्रार्थना को ईश्वर सुनता ही हैं। प्रार्थना से ही मूलर (एक प्रसिद्ध श्रद्धालु ईसाई) जैसे व्यक्ति अपना व्यवहार चलाते हैं, इसके दृष्टान्त भी वे मुझे सुनाते रहते थे। प्रार्थना की महिमा के विषय में मैंने उनकी सारी बाते तटस्थ भाव से सुनी। मैंने उनसे कहा कि यदि ईसाई बनने का अन्तर्नाद मेरे भीकर उठा तो उसे स्वीकार करने में कोई वस्तु मेरे लिए बाधक न हो सकेगी। अन्तर्नाद के वश होना तो मैं इसके कई वर्ष पहले सीख चुका था। उसके वश होने में मुझे आनन्द आता था। उसके विरुद्ध जाना मेरे लिए कठिन और दुखःद था।

हम वेलिंग्टन गये। मुझ 'साँवले साथी' को साथ में रखना मि. बेकर के लिए भारी पड़ गया। मेरे कारण उन्हें कई बार अड़चने उठानी पड़ती थी। रास्ते में हमें पड़ाव करना था, क्योंकि मि. बेकर का संघ रविवार को यात्रा न करता था और बीच में रविवार पड़ता था। मार्ग में और स्टेशन पर पहले तो मुझे प्रवेश देने से ही इनकार किया गया और झक-झक के बाद जब प्रवेश मिला तो होटल के मालिक ने भोजन -गृह में भोजन करने से इनकार कर दिया।। पर मि. बेकर यो आसानी से झुकने वाले नहीं थे। वे होटल में ठहरने वालो के हक पर डटे रहे। लेकिन मैं उनकी कठिनाईयों को समझ सका था। वेलिंग्टन में भी मैं उनके साथ ही ठहरा था। वहाँ भी उन्हें छोटी-छोटी अड़चनो को सामना करना पड़ता था। अपने सद्भाव से वे उन्हे छिपाने का प्रयत्न करते थे, फिर भी मैं उन्हे देख ही लेता था।

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