जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
को जाने कल की
'खबर नहीं इस जुग में पल की
समझ मन! को जाने कल की?'
मुकदमे के खतम होने पर मेरे लिए प्रिटोरिया में रहने का कोई कारण न रहा। मैं डरबन गया। वहाँ पहुँचकर मैंने हिन्दुस्तान लौटने की तैयारी की। अब्दुल्ला सेठ मुझे बिना मान-सम्मान के जाने दे, यह संभव न था। उन्होंने मेरे निमित्त से सिडनहैम में एक सामूहिक भोज का आयोजन किया। पूरा दिन वहीं बिताना था।
मेरे पास कुछ अखवार पड़े थे। मैं उन्हे पढ़ रहा था। एक अखवार के एक कोने में मैंने एक छोटा-सा संवाद देखा। उसका शीर्षक था, 'इंडियन फ्रेंचाइज़' यानी हिन्दुस्तानी मताधिकार। इस संवाद का आशय यह था कि हिन्दुस्तानियो को नेटाल की धारासभा के लिए सदस्य चुनने का जो अधिकार हैं वह छीन लिया जाये। धारासभा में इससे संबंध रखने वाले कानून पर बहस चल रही थी। मैं इस कानून से अपरिचित था। भोज में सम्मिलित सदस्यों में से किसी को भी हिन्दुस्तानियों का अधिकार छीनने वाले इस बिल की कोई खबर न थी।
मैंने अब्दुल्ला सेठ से पूछा। उन्होंने कहा, 'इस बात के हम क्या जाने? व्यापार पर कोई संकट आवे तो हमे उसका चलता हैं। देखिये न, ऑरेंज फ्री स्टेट में हमारे व्यापार की जड़ उखड गयी। उसके लिए हमने मेंहनत की, पर हम तो अपंग ठहरे। अशबार पढ़ते है तो उसमें भी सिर्फ भाव-ताव ही समझ पाते हैं। कानूनी बातो का हमे क्या पता चले? हमारे आँख-कान तो हमारे गोरे वकील हैं। '
मैंने पूछा, 'पर यहाँ पैदा हुए औऱ अंग्रेजी जानने वाले इतने सारे नौजवान हिन्दुस्तानी यहाँ हैं, वे क्या करते हैं?'
अब्दुल्ला सेठ ने माथे पर हाथ रखकर कहा, 'अरे भाई, उनसे हमे क्या मिल सकता हैं? वे बेचारे इसमे क्या समझे? वे तो हमारे पास भी नहीं फटकते, और सच पूछो तो हम भी उन्हे नहीं पहचानते। वे ईसाई हैं, इसलिए पादरियों के पंजे में हैं। और पादरी सब गोरे हैं, जो सरकार के अधीन हैं।'
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