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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

जल्दी लौटिए


मद्रास से मैं कलकत्ते गया। कलकत्ते में मेरी कठिनाइयों का पार न रहा। वहाँ मैं 'ग्रेट ईस्टर्न' होटल में ठहरा। किसी से जान-पहचान नहीं थी। होटल में 'डेली टेलिग्राफ' के प्रतिनिधि मि. एलर थॉर्प से पहचान हुई। वे बंगाल क्लब में रहते थे। उन्होंने मुझे वहाँ आने के लिए न्योता। इस समय उन्हे पता नहीं था कि होटल के दीवानखाने में किसी हिन्दुस्तानी को नहीं ले जाया जा सकता। बाद में उन्हें इस प्रतिबन्ध का पता चला। इससे वे मुझे अपने कमरे में ले गये। हिन्दुस्तानियों के प्रति स्थानीय अंग्रेजो का तिरस्कार देखकर उन्हे खेद हुआ। मुझे दीवानखाने में न जाने के लिए उन्होंने क्षमा माँगी।

'बंगाल के देव' सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी से तो मुझे मिलना ही था। उनसे मिला। जब मैं मिला, उनके आसपास दूसरे मिलने वाले भी बैठे थे। उन्होंने कहा, 'मुझे डर हैं कि लोग आपके काम में रस नहीं लेंगे। आप देखते हैं कि यहाँ देश में ही कुछ कम विडम्बनायें नहीं हैं। फिर भी आपसे जो हो सके अवश्य कीजिये। इस काम में आपको महाराजाओ की मदद की जरूरत होगी। आप ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियों से मिलिये, राजा सर प्यारीमोहन मुकर्जी और महाराजा टागोक से भी मिलियेगा। दोनों उदार वृति के हैं और सावर्जनिक काम में काफी हिस्सा लेते हैं।'

मैं इन सज्जनों से मिला। पर वहाँ मेरी दाल न गली। दोनों ने कहा, 'कलकत्ते में सार्वजनिक सभा करना आसान काम नहीं है। पर करनी ही हो तो उसका बहुत कुछ आधार सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी पर होगा।'

मेरी कठिनाइयाँ बढ़ती जा रही थी। मैं 'अमृतबाजार पत्रिका' के कार्यालय में गया। वहाँ भी जो सज्जन मिले उन्होंने मान लिया कि मैं कोई रमताराम हूँगा। 'बंगवासी' ने तो हद कर दी। मुझे एक घंटे तक बैठाये ही रखा। सम्पादक महोदय दूसरो के साथ बातचीत करते जाते थे। लोग आते-जाते रहते थे, पर सम्पादकजी ने मेरी करफ देखते भी न थे। एक घंटे तक राह देखने के बाद जब मैंने अपनी बात छेड़ी, तो उन्होंने कहा, 'आप देखते नहीं हैं, हमारे पास कितना काम पड़ा हैं? आप जैसे तो कई हमारे पास आते रहते है। आप वापस जाये यहीं अच्छा है। हमे आपकी बात नहीं सुननी हैं। '

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