जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव
इस महामारी ने गरीब हिन्दुस्तानियो पर मेरे प्रभाव को, मेरे धंधे का और मेरी जिम्मेदारी को बढा दिया। साथ ही, यूरोपियनो के बीच मेरी बढ़ती हुई कुछ जान पहचान भी इतनी निकट की होती गयी कि उसके कारण भी मेरी जिम्मेदारी बढ़ने लगी।
जिस तरह वेस्ट से मेरी जान पहचान निरामिषाहारी भोजनगृह में हुई, उसी तरह पोलाक के विषय में हुआ। एक दिन जिस मेंज पर मैं बैठा था, उससे दूसरी मेंज पर एक नौजवान भोजन कर रहे थे। उन्होंने मिलने की इच्छा से मुझे अपने नाम का कार्ड भेजा। मैंने उन्हें मेंज पर आने के लिए निमंत्रित किया। वे आये।
'मैं 'क्रिटिक' का उप संपादक हूँ। महामारी विषयक आपका पत्र पढने के बाद मुझे आपसे मिलने की बडी इच्छा हुई। आज मुझे यह अवसर मिल रहा है।'
मि. पोलाक की शुद्ध भावना से मैं उनकी ओर आकर्षित हुआ। पहली ही रात में हम एक दूसरे को पहचानने लगे और जीवन विषयक अपने विचारो में हमे बहुत साम्य दिखायी पडा। उन्हें सादा जीवन पसंद था। एक बार जिस वस्तु को उनकी बुद्धि कबूल कर लेती, उस पर अमल करने की उनकी शक्ति मुझे आश्चर्य जनक मालूम हुई। उन्होंने अपने जीवन में कई परिवर्तन तो एकदम कर लिये।
'इंडियन ओपीनियन' का खर्च बढ़ता जाता था। वेस्ट की पहली ही रिपोर्ट मुझे चौकानेवाली थी। उन्होंने लिखा, 'आपने जैसा कहा था वैसा मुनाफा मैं इस काम में नहीं देखता। मुझे तो नुकसान ही नजर आता हैं। बही खातो की अव्यवस्था है। उगाही बहुत है। पर वह बिना सिर पैर की है। बहुत से फेरफार करने होगे। पर इस रिपोर्ट से आप घबराइये नहीं। मैं सारी बातो को व्यवस्थित बनाने की भरसक कोशिश करुँगा। मुनाफा नहीं है, इसके लिए मैं इस काम को छोडूंगी नहीं।'
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