जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
जुलू-विद्रोह
घर बसा कर बैठने के बाद कही स्थिर होकर रहना मेरे नसीब में बदा ही न था। जोहानिस्बर्ग में मैं कुछ स्थिर-सा होने लगा था कि इसी बीच एक अमसोची घटना घटी। अखबारों में यह खबर पढने को मिली कि नेटाल में जुलू 'विद्रोह' हुआ है। जुलू लोगों से मेरी कोई दुश्मनी न थी। उन्होंने एक भी हिन्दुस्तानी का नुकसान नहीं किया था। 'विद्रोह' शब्द के औचित्य के विषय में भी मुझे शंका थी। किन्तु उन दिनो मैं अंग्रेजी सल्तनत को संसार का कल्याण करने वाली सल्तनत मानता था। मेरी वफादारी हार्दिक थी। मैं उस सल्तनत का क्षय नहीं चाहता था। अतएव बल-प्रयोग सम्बन्धी नीति-अनीति का विचार मुझे इस कार्य को करने सा रोक नहीं सकता था। नेटाल पर संकट आने पर उसके पास रक्षा के लिए स्वयंसेवको की सेना थी और संकट के समय उसमें काम के लायक सैनिक भरती भी हो जाते थे। मैंने पढा कि स्वयंसेवको की सेना इस विद्रोह को दबाने के लिए रवाना हो चुकी है।
मैं अपने को नेटालवासी मानता था और नेटाल के साथ मेरा निकट सम्बन्ध तो था ही। अतएव मैंने गवर्नर को पत्र लिखा कि यदि आवश्यकता हो तो घायलो की सेवा-शुश्रूषा करने वाले हिन्दुस्तानियो की एक टुकडी लेकर मैं सेवा के लिए जाने को तैयार हूँ। तुरन्त ही गवर्नर का स्वीकृति सूचक उत्तर मिला। मैंने अनुकूल उत्तर की अथवा इतनी जल्दी उत्तर पाने की आशा नहीं रखी थी। फिर भी उक्त पत्र लिखने के पहले मैंने अपना प्रबन्ध तो कर ही लिया था। तय यह किया था कि यदि मेरी प्रार्थना स्वीकृत हो जाय, तो जोहानिस्बर्ग का घर उठा देंगे, मि. पोलाक अलग घर लेकर रहेंगे और कस्तूरबाई फीनिक्स जाकर रहेगी। इस योजना को कस्तूरबाई की पूर्ण सहमति प्राप्त हुई। मुझे स्मरण नहीं है कि मेरे ऐसे कार्यो में उसकी तरफ से किसी भी दिन कोई बाधा डाली गयी हो। गवर्नर का अत्तर मिलते ही मैंने मालिक को मकान खाली करने के सम्बन्ध में विधिवत एक महीने का नोटिस दे दी। कुछ सामान फीनिक्स गया, कुछ मि. पोलाक के पास रहा।
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