जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
दर्द के लिए क्या किया
पसली का दर्द मिट नहीं रहा था, इससे मैं घबराया। मैं इतना जानता था कि औषधोपचार से नहीं, बल्कि आहार के परिवर्तन से और थोड़े से बाहरी उपचार से दर्द जाना चाहिये।
सन् 1890 में मैं डॉ. एलिन्सन से मिला था। वे अन्नाहारी थे और आहार के परिवर्तन द्वारा बीमारियो का इलाज करते थे। मैंने उन्हें बुलाया। वे आये। उन्हें शरीर दिखाया और दूध के बारे में अपनी आपत्ति की बात उनसे कही। उन्होंने मुझे तुरन्त आश्वस्त किया और कहा, 'दूध की कोई आवश्यकता नहीं है। और मुझे तो तुन्हें कुछ दिनो बिना किसी चिकनाई के ही रखना है।' यो कहकर पहले तो मुझे सिर्फ रूखी रोटी और कच्चे साग तथा फल खाने की सलाह दी। कच्ची तरकारियो में मूली, प्याज और किसी तरह के दूसरे कंद तथा हरी तरकारियाँ और फलो में मुख्यतः नारंगी लेने को कहा। इन तरकारियो को कद्दूकश पर कसकर या चटनी की शक्ल में पीसकर खाना था। मैंने इस तरह तीन दिन तक काम चलाया। पर कच्चे साग मुझे बहुत अनुकूल नहीं आये। मेरा शरीर इस योग्य नहीं था कि इस प्रयोगों की पूरी परीक्षा कर सकूँ और न मुझ में वैसी श्रद्धा थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने चौबीस घंटे खिड़कियाँ खुली रखने, रोज कुनकुने पानी से नहाने, दर्दवाले हिस्से पर तेल मालिश करने और पाव से लेकर आधे घंटे तक खुली हवा में घूमने की सलाह दी। यह सब मुझे अच्छा लगा। घर में फ्रांसीसी ढंग की खिड़कियाँ थी, उन्हे पूरा खोल देने पर बरसात का पानी अन्दर आता। ऊपर का रोशनदान खुलने लायक नहीं था। उसका पूरा शीशा तुडवाकर उससे चौबीस घंटे हवा आने का सुभीता कर लिया। फ्रांसीसी खिड़कियाँ मैं इतनी खुली रखता था कि पानी की बौछार अन्दर न आये।
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