जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
तीसरे दर्जे की विडम्बना
बर्दवान पहुँचकर हमें तीसरे दर्जे का टिकट लेना था। उसे लेने में परेशानी हुई। जवाब मिला, 'तीसरे दर्जे के यात्री को टिकट पहले से नहीं दिया जाता।' मैं स्टेशन मास्टर से मिलने गया। उनके पास मुझे कौन जाने देता? किसी ने दया करके स्टेशन मास्टर को दिखा दिया। मैं वहाँ पहुँचा। उनसे भी उपर्युक्त उत्तर मिला। खिड़की खुलने पर टिकट लेने गया। पर टिकट आसानी से मिलने वाला न था। बलबान यात्री एक के बाद एक घुसते जाते और मुझ जैसो को पीछे हटाते जाते। आखिर टिकट मिला।
गाड़ी आयी। उसमें भी जो बलबान थे वे घुस गये। बैठे हुओ और चढने वालो के बीच गाली गलौज और धक्का मुक्की शुरू हुई। इसमे हिस्सा लेना मेरे लिए सम्भव न था। हम तीनों इधर से उधर चक्कर काटते रहे। सब ओर से एक ही जवाब मिलता था, 'यहाँ जगह नहीं हैं।' मैं गार्ड के पास गया। उसने कहा, 'जगह मिले तो बैठो, नहीं तो दूसरी ट्रेन में जाना।'
मैंने नम्रता पूर्वक कहा, 'लेकिन मुझे जरूरी काम है।' यह सुनने के लिए गार्ड के पास समय नहीं था। मैं हारा। मगनलाल से कहा, 'जहाँ जगह मिले, बैठ जाओ।' पत्नी को लेकर मैं तीसरे दर्जे के टिकट से ड्योढे दर्जे में घुसा। गार्ड ने मुझे उसमें जाते देख लिया था।
आसनसोल स्टेशन पर गार्ड ज्यादा किराये के पैसे लेने आया। मैंने कहा, 'मुझे जगह बताना आपका धर्म था। जगह न मिलने के कारण मैं इसमे बैठा हूँ। आप मुझे तीसरे दर्जे में जगह दिलाइये। मैं उसमें जाने को तैयार हूँ।'
गार्ड साहब बोले, 'मुझ से बहस मत कीजिये। मेरे पास जगह नहीं है। पैसे न देने हो, तो गाड़ी से उतरना पड़ेगा।'
मुझे तो किसी भी तरह पूना पहुँचना था। गार्ड से लड़ने की मेरी हिम्मत न थी। मैंने पैसे चुका दिये। उसने ठेठ पूना तक का डयोढ़ा भाड़ा लिया। यह अन्याय मुझे अखर गया।
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