जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
असहयोग का प्रवाह
इसके आगे खादी की प्रगति किस प्रकार हुई, इसकी वर्णन इन प्रकरणों में नहीं किया जा सकता। कौन-कौन सी वस्तुएँ जनता के सामने किस प्रकार आयी, यह बता देने के बाद उनके इतिहास में उतरना इन प्रकरणों का क्षेत्र नहीं है। उतरने पर उन विषयो की अलग पुस्तक तैयार हो सकती है। यहाँ तो मैं इतना ही बताना चाहता हूँ कि सत्य की शोध करते हुए कुछ वस्तुएँ मेरे जीवन में एक के बाद एक किस प्रकार अनायास आती गयी।
अतएव मैं मानता हूँ कि अब असहयोग के विषय में थोडा कहने का समय आ गया है। खिलाफत के बारे में अलीभाइयो का जबरदस्त आन्दोलन तो चल ही रहा था। मरहूम मौलाना अब्दुलबारी वगैरा उलेमाओं के साथ इस विषय की खूब चर्चाये हुई। इस बारे में विवेचन हुआ कि मुसलमान शान्ति को, अहिंसा को, कहाँ तक पाल सकते है। आखिर तय हुआ कि अमुक हद तक युक्ति के रूप में उसका पालन करने में कोई एतराज नहीं हो सकता, और अगर किसी ने एक बार अहिंसा की प्रतिज्ञा की है, तो वह उसे पालने के लिए बँधा हुआ है। आखिर खिलाफत परिषद में असहयोग का प्रस्ताव पेश हुआ और बड़ी चर्चा के बाद वह मंजूर हुआ। मुझे याद है कि एक बार इलाहाबाग में इसके लिए सारी रात सभा चलती रही थी। हकीम साहब को शान्तिमय असहयोग का शक्यका के विषय में शंका थी। किन्तु उनकी शंका दूर होने पर वे उसमें सम्मिलित हुए और उनकी सहायता अमूल्य सिद्ध हुई।
इसके बाद गुजरात में परिषद हुई। उसमें मैंने असहयोग का प्रस्ताव रखा। उसमें विरोध करनेवालो की पहली दलील यह थी कि जब तक कांग्रेस असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार न करे, तब तक प्रान्तीय परिषदो को यह प्रस्ताव पास करने का अधिकार नहीं है। मैंने सुझाया कि प्रान्तीय परिषदे पीछे कदम नहीं हटा सकती, लेकिन आगे कदम बढाने का अधिकार तो सब शाखा-संस्थाओ को है। यही नहीं, बल्कि उनमें हिम्मत हो तो ऐसा करना उनका धर्म है। इससे मुख्य संस्था का गौरव बढ़ता है। असहयोग के गुण-दोष पर अच्छी और मीठी चर्चा हुई। मत गिने गये और विशाल बहुमत से असहयोग का प्रस्ताव पास हुआ। इस प्रस्ताव को पास कराने में अब्बास तैयबजी और वल्लभभाई पटेल का बड़ा हाथ रहा। अब्बास साहब सभापति थे और उनका झुकाव असहयोग के प्रस्ताव की तरफ ही था।
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