जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
खुराक के प्रयोग
जैसे-जैसे मैं जीवन की गहराई में उतरता गया, वैसे-वैसे मुझे बाहर और भीतर के आचरण में फेरफार करने की जरुरत मालूम होती गयी। जिस गति से रहन-सहन और खर्च में फेरफार हुए, उसी गति से अथवा उससे भी अधिक वेग से मैंने खुराक में फेरफार करना शुरू किया। मैंने देखा कि अन्नाहार विषयक अंग्रेजी की पुस्तकों में लेखकों ने बहुत सूक्ष्मता से विचार किया हैं। उन्होंने धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक और वैद्यक दृष्टि से अन्नाहार की छानबीन की थी। नैतिक दृष्टि से उन्होंने यह सोचा कि मनुष्य को पशु-पक्षियों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ हैं, वह उन्हें मारकर खाने के लिए नहीं, बल्कि उनकी रक्षा के लिए हैं ; अथवा जिस प्रकार मनुष्य एक-दूसरे का उपयोग करते हैं, पर एकृदूसरे को खाते नहीं, उसी प्रकार पशु-पक्षियों भी उपयोग के लिए हैं, खाने के लिए नहीं। और, उन्होंने देखा कि खाना भोग के लिए नहीं, बल्कि जीने के लिए ही हैं। इस कारण कईयों में आहार में माँस का ही बल्कि अंड़ो और दूध का भी त्याग सुझाया और किया। विज्ञान की दृष्टि से और मनुष्य की शरीर-रचना को देखकर कई लोग इस परिणाम पर पहुँचे कि मनुष्य को भोजन पकाने की आवश्यकता ही नहीं हैं, वह वनपक्व (झाड़ पर कुदरती तौर पर पके हुए फल) फल ही खाने के लिए पैदा किया गया हैं। दूध उसे केवल माता का ही पीना चाहिये। दाँत निकलने के बाद उसको चबा सकने योग्य खुराक ही लेती चाहिये। वैद्यक दृष्टि से उन्होंने मिर्च-मसालों का त्याग सुझाया और व्यावहारिक अथवा आर्थिक दृष्टि से उन्होंने बताया कि कम-से-कम खर्चवाली खुराक अन्नाहार ही हो सकती हैं। मुझ पर इन चारो दृष्टियो का प्रभाव पड़ा और अन्नाहार देने वाले भोजन-गृह में मैं चारो दृष्टिवाले व्यक्तियों से मिलने लगा। विलायत में इनका एक मण्डल था और एक साप्ताहिक भी निकलता था। मैं साप्ताहिक का ग्राहक बना और मण्डल का सदस्य। कुछ ही समय में मुझे उसकी कमेटी में ले लिया गया ष यहाँ मेरा परिचय ऐसे लोगों से हुआ, जो अन्नाहारियों में स्तम्भ रुप माने जाते थे। मैं प्रयोगों में व्यस्त हो गया।
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