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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

मेरी परेशानी


बैरिस्टर कहलाना आसान मालूम हुआ, पर बैरिस्टरी करना मुश्किल लगा। कानून पढ़े, पर वकालत करना न सीखा। कानून में मैंने कई धर्म-सिद्धान्त पढ़े, जो अच्छे लगे। पर यह समझ में न आया कि इस पेशे में उनका उपयोग कैसे किया जा सकेगा। 'अपनी सम्पत्ति का उपयोग तुम इस तरह करो कि जिससे दूसरे की सम्पत्ति को हानि न पहुँचे' यह एक धर्म-वचन हैं। पर मैं यह न समझ सका कि मुवक्किल के मामले में इसका उपयोग कैसे किया जा सकता था। जिस मुकदमों में इस सिद्धान्त का उपयोग हुआ था, उन्हें मैं पढ़ गया। पर उससे मुझे इस सिद्धान्त का उपयोग करने की युक्ति मालूम न हुई।

इसके अलावा, पढ़े हुए कानूनों में हिन्दुस्तान के कानून का तो नाम तक न था। मैं यह जान ही न पाया कि हिन्दु शास्त्र और इस्लामी कानून कैसे हैं। न मैं अर्जी-दावा तैयार करना सीखा। मैं बहुत परेशान हुआ। फ़िरोजशाह मेंहता का नाम मैंने सुना था। वे अदालतों में सिंह की तरह गर्जना करते थे। विलायत में उन्होंने यह कला कैसे सीखी होगी? उनके जितनी होशियारी तो इस जीवन में आ नहीं सकती। पर एक वकील के नाते आजीविका प्राप्त करने की शक्ति पाने के विषय में भी मेरे मन में बड़ी शंका उत्पन्न हो गयी।

यह उलझन उसी समय से चल रही थी, जब मैं कानून का अध्ययन करने लगा था। मैंने अपनी कठिनाईयाँ एक-दो मित्रो के सामने रखी। उन्होंने सुझाया कि मैं नौरोजी की सलाह लूँ। यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि दादा भाई के नाम एक पत्र मेरे पास था। उस पत्र का उपयोग मैंने देर से किया। ऐसे महान पुरुष से मिलने जाने का मुझे क्या अधिकार था? कहीं उनका भाषण होता, तो मैं सुनने जाता और एक कोने में बैटकर आँख और कान को तृप्त करके लौट आता। विद्यार्थियो से सम्पर्क रखने के लिए उन्होंने एक मंडली की भी स्थापना की थी। मैं उसमें जाता रहता था। विद्यार्थियो के प्रति दादाभाई की चिन्ता देखकर और उनके प्रति विद्यार्थियो का आदर देखकर मुझे आनन्द होता था। आखिर मैंने उन्हें अपने पास का सिफारिशी पत्र देने की हिम्मत की। मैं उनसे मिला। उन्होंने मुझसे कहा,'तुम मुझ से मिलना चाहो और कोई सलहा लेना चाहो तो जरूर मिलना।' पर मैंने उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं दिया। किसी भारी कठिनाई के सिवा उनका समय लेना मुझे पाप जान पड़ा। इसलिए उक्त मित्र की सलाह मान कर दादाभाई के सम्मुख अपनी कठिनाईयाँ रखने की मेरी हिम्मत न पड़ी।

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