जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
'क्यों रविशंकर (उसका नाम रविशंकर था), तुम रसोई बनाना तो जानते नहीं, पर सन्ध्या आदि का क्या हाल हैं?'
'क्या बताऊँ भाईसाहब, हल मेरा सन्ध्या-तर्पण हैं और कुदाल खट-करम हैं। अपने राम तो ऐसे ही बाम्हन हैं। कोई आप जैसा निबाह ले तो निभ जाये, नहीं तो आखिर खेती तो अपनी हैं ही।'
मैं समझ गया। मुझे रविशंकर का शिक्षक बनना था। आधी रसोई रविशंकर बनाता और आधी मैं। मैं विलायत की अन्नाहार वाली खुराक के प्रयोग यहाँ शुरू किये। एक स्टोव खरीदा। मैं स्वयं तो पंक्ति-भेद का मानता ही न था। रविशंकर को भी उसका आग्रह न था। इसलिए हमारी पटरी ठीक जम गयी। शर्त या मुसीबत, जो कहो सो यह थी कि रविशंकर ने मैंल से नाता न तोड़ने और रसोई साफ रखनें की सौगन्ध ले रखी थी !
लेकिन मैं चार-पाँच महीने से अधिक बम्बई में रह ही न सकता था, क्योंकि खर्च बढ़ता जाता था और आमदनी कुछ भी न थी। इस तरह मैंने संसार में प्रवेश किया। बारिस्टरी मुझे अखरने लगी। आडम्बर अधिक, कुशलता कम। जवाबदारी का ख्याल मुझे दबोच रहा था।
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