जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पिताजी दीवान थे, फिर भी थे तो नौकर ही; तिस पर राज-प्रिय थे, इसलिए अधिक पराधीन रहे। ठाकुर साहब ने आखिरी घड़ी तक उन्हें छोड़ा नहीं। अन्त में जब छोड़ा तो ब्याह के दो दिन पहले ही रवाना किया। उन्हें पहुँचाने के लिए खास डाक बैठायी गयी। पर विधाता ने कुछ और ही सोचा था। राजकोट से पोरबन्दर साठ कोस है। बैलगाड़ी से पाँच दिन का रास्ता था। पिताजी तीन दिन में पहुँचे। आखिरी में तांगा उलट गया। पिताजी को कड़ी चोट आयी। हाथ पर पट्टी, पीठ पर पट्टी। विवाह-विषयक उनका और हमारा आनन्द आधा चला गया। फिर भी ब्याह तो हुए ही। लिखे मुहूर्त कहीं टल सकते हैं? मैं तो विवाह के बाल-उल्लास में पिताजी का दुःख भूल गया !
मैं पितृ-भक्त तो था ही, पर विषय-भक्त भी वैसा ही था न? यहाँ विषय का मतलब इन्द्रिय का विषय नहीं है, बल्कि भोग-मात्र हैं। माता-पिता की भक्ति के लिए सब सुखों का त्याग करना चाहिये, यह ज्ञान तो आगे चलकर मिलने वाला था। तिस पर भी मानो मुझे इस भोगेच्छा का दण्ड ही भुगतना हो, इस तरह मेरे जीवन में एक विपरीत घटना घटी, जो मुझे आज तक अखरती है। जब-जब निष्कुलानन्द का
त्याग न टके रे वैराग बिना,
करीए कोटि उपाय जो।
गाता हूँ या सुनता हूँ, तब-तब वह विपरीत और कड़वी घटना मुझे याद आती है और शरमाती है।
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