जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मुकदमे की तैयारी
प्रिटोरिया में मुझे जो एक वर्ष मिला, वह मेरे जीवन का अमूल्य वर्ष था। सार्वजनिक काम करने की अपनी शक्ति का कुछ अंदाज मुढे यहाँ हुआ। उसे सीखने का अवसर यहीं मिला। मेरी धार्मिक भावना अपने-आप तीव्र होने लगी। और कहना होगा कि सच्ची वकालत भी मैं यहीं सीखा। नया बारिस्टर पुराने बारिस्टर के दफ्तर में रहकर जो बाते सीखता है, सो मैं यही सीख सका। यहाँ मुझमे यह विश्वास पैदा हुआ कि वकील के नाते मैं बिल्कुल नालायक नहीं रहूँगा। वकील बनने की कुंजी भी यहीं मेरे हाथ लगी।
दादा अब्दुल्ला का मुकदमा छोटा न था। चालीस हजार पौंड का यानी छह लाख रुपयों का दावा था। दावा व्यापार के सिलसिले में था, इसलिए उसमें बही-खाते की गुत्थियाँ बहुत थी। दावे का आधार कुछ तो प्रामिसरी नोट पर और कुछ प्रामिसरी नोट लिख देने के वचन पलवाने पर था। बचाव यह था कि प्रामिसरी नोट धोखा देकर लिखवाये गये थे और उनका पूरा मुआवजा नहीं मिला था। इसमे तथ्य और कानून की गलियाँ काफी थी। बही-खाते की उलझनें भी बहुत थी।
दोनो पक्षों ने अच्छे से अच्छे सॉलिसिटर और बारिस्टर किये थे, इसलिए मुझे उन दोनो के काम का अनुभव मिला। सॉलिसिटर के लिए वादी का तथ्य संग्रह करने का सारा बोझ मुझ पर था। उसमें से सॉलिसिटर कितना रखता हैं और सॉलिसिटर द्वारा तैयार की गयी सामग्री का उपयोग करता हैं, सो मुझे देखने को मिलता था। मैं समझ गया कि इस केस को तैयार करने में मुझे अपनी ग्रहण शक्ति का और व्यवस्था -शक्ति का ठीक अंदाज हो जाएगा।
मैंने केस में पूरी दिलचस्पी ली। मैं उसमें तन्मय हो गया। आगे-पीछे के सब कागज पढ़ गया। मुवक्किल के विश्वास की और उसकी होशियारी की सीमा न थी। इससे मेरा काम बहुत आसान हो गया। मैंने बारीकी से बही-खाते का अध्ययन कर लिया। बहुत से पत्र गुजराती में थे। उनका अनुवाद भी मुझे ही करना पड़ता था। इससे मेरी अनुवाद करने की शक्ति बढी।
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