जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पर इतने से मुझे संतोष नहीं हुआ। यदि पंच के फैसले पर अमल होता, तो तैयब हाजी खानमहम्मद इतना रुपया एक साथ दे ही नहीं सकते थे। दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए पोरबन्दर में मेंमनों में आपस का ऐसा एक अलिखित नियम था कि खुद चाहे मर जाये . पर दिवाला न निकाले। तैयब सेठ सैतींस हजार पौंड एक मुश्त दे ही नहीं सकते थे। उन्हे न तो एक दमड़ी कम देनी थी और न दिवाला ही निकालना था। रास्ता एक ही था कि दादा अब्दुल्ला उन्हे काफी लम्बी मोहलत दे। दादा अब्दुल्ला ने उदारता से काम लिया और खूब लम्बी मोहलत दे दी। पंच नियुक्त कराने में मुझे जितनी मेंहनत पड़ी, उससे अधिक मेंहनत यह लम्बी अवधि निश्चित कराने में पड़ी। दोनो पक्षों को प्रसन्नता हुई। दोनो की प्रतिष्ठा बढी। मेरे संतोष की सीमा न रही। मैं सच्ची वकालत सीखा, मनुष्य के अच्छे पहलू को खोचना सीखा और मनुष्य हृदय में प्रवेश करना सीखा। मैंने देखा कि वकील का कर्तव्य दोनो पक्षों के बीच खुदी हुई खाई को पाटना हैं। इस शिक्षा ने मेरे मन में ऐसी जड़ जमायी कि बीस साल की अपनी वकालत का मेरा अधिकांश समय अपने दफ्तर में बैठकर सैकड़ो मामलो को आपस में सुलझाने में ही बीता। उसमें मैंने कुछ खोया नहीं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि मैंने पैसा खोया। आत्मा तो खोयी ही नहीं।
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