जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने जवाब दिया, 'मैं इस तरह पैसे नहीं ले सकता। अपने सार्वजनिक काम की मैं इतनी कीमत नहीं समझता। मुझे उसमें कोई वकालत तो करनी नहीं हैं। मुझे तो लोगों से काम लेना होगा। उसके पैसे मैं कैसे ले सकता हूँ? फिर, मुझे सार्वजनिक काम के लिए आपसे पैसे निकलवाने होगे। अगर मैं अपने लिए पैसे लूँ तो आपके पास से बड़ी रकमें निकलवाने में मुझे संकोच होगा और आखिर हमारी नाव अटक जायेगी। समाज से तो मैं हर साल 300 पौंड से अधिक ही खर्च कराऊँगा। '
'पर हम आपको पहचानने लगे हैं। आप कौन अपने लिए पैसे माँगते है? आपके रहने का खर्च तो हमे देना ही चाहिये न?'
'यह तो आपका स्नेह और तात्कालिक उत्साह बुलवा रहा हैं। यही उत्साह और यही स्नेह सदा बना रहेगा, यह हम कैसे मान ले? मौका आने पर मुझे तो कभी-कभी आपको कड़वी बाते भी कहनी पड़ेगी। दशा में भी मैं आपके स्नेह की रक्षा कर सकूँगा या नहीं, सो तो दैव ही जाने। पर असल बात यह हैं कि सार्वजनिक सेवा के लिए मुझे पैसे लेने ही न चाहिये। आप सब वकालत-सम्बन्धी अपना काम मुझे देने के लिए वचन बद्ध हो जाये, तो उतना मेरे लिए बस हैं। शायद यह भी आपके लिए भारी पड़ेगी। मैं कोई गोरा बारिस्टर नहीं हूँ। कोर्ट मुझे दाद दे या न दे, मैं क्या जानूँ? मैं तो यह भी नहीं जानता कि मुझसे कैसी वकालत हो सकेगी। इसलिए मुझे पहले से वकालत का मेंहनताना देने में भी आपको जोखम उठानी हैं। इतने पर भी अगर आप मुझे वकालत का मेंहनताना देंगे तो वह मेरी सार्वजनिक सेवा के कारण ही माना जायेगा न? '
इस चर्चा का परिणाम यह निकला कि कोई बीस व्यापारियों ने मेरे लिए एक वर्ष का वर्षासन बाँध दिया। इसके उपरान्त, दादा अब्दुल्ला बिदाई के समय मुझे जो भेट देनेवाले थे उसके बदले उन्होंने मेरे लिए आवश्यक फर्नीचर खरीद दिया और मैं नेटाल में बस गया।
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