जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
अनुभव से पता चला कि बिना तकाजे के कोई चन्दा नहीं देता। डरबन से बाहर रहनेवालो के यहाँ बार-बार जाना असंभव था। आरम्भ-शूरता का दोष तुरन्त प्रकट हुआ। डरबन में भी कई बार चक्कर लगाने पर पैसे मिलते थे।
मैं मंत्री था। पैसे उगाहने का बोझ मेरे सिर था। मेरे लिए अपने मुहर्रिर का लगभग सारा दिन उगाही के काम में ही लगाये रखना जरूरी हो गया। मुहर्रिर भी दिक आ गया। मैंने अनुभव किया कि चन्दा मासिक नहीं, वार्षिक होना चाहिये और वह सबको पेशगी ही देना चाहिये। सभा की गयी। सबने मेरी सूचना का स्वागत किया और कम-से-कम तीन पौंड वार्षिक चन्दा लेने का निश्चय हुआ। इससे वसूली का काम आसान बना।
मैंने आरम्भ में ही सीख लिया था कि सार्वजनिक काम कभी कर्ज लेकर नहीं करना चाहिये। दूसरे कामों के बारे में लोगों का विश्वास चाहे किया जाय, पर पैसे के वादे का विश्वास नहीं किया जा सकता। मैंने देख लिया था कि लिखायी हुई रकम चुकाने का धर्म लोग कहीं भी नियमित रुप से नहीं पालते। इसमे नेटाल के भारतीय अपवादरुप नहीं थे। अतएव नेटाल इंडियन कांग्रेस ने कभी कर्ज लेकर काम किया ही नहीं।
सदस्य बनाने में साथियों ने असीम उत्साह का परिचय दिया था। इसमे उन्हे आनन्द आता था। अनमोल अनुभव प्राप्त होते थे। बहुतेरे लोग खुश होकर नाम लिखाते और तुरन्त पैसे दे देते थे। दूर-दूर के गाँवो में थोड़ी कठिनाई होता थी। लोग सार्वजनिक काम का अर्थ नहीं समझते थे। बहुत-सी जगहो में तो लोग अपने यहाँ आने का न्योता भेजते और प्रमुख व्यापारी के यहाँ ठहराने की व्यवस्था करते। पर इन यात्राओ में एक जगह शुरू में ही हमे मुश्किल का सामना करना पड़ा। वहाँ एक व्यापारी से छह पौंड मिलने चाहिये थे, पर वह तीन से आगे बढ़ता ही न था। अगर इतनी रकम हम ले लेते, तो फिर दूसरो से अधिक न मिलती।
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