जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
दक्षिण अफ्रीका के मद्रासी भाइयो से मैंने भर-भर कर प्रेम-रस पाया हैं। उनका स्मरण मुझे प्रतिक्षण बना रहता हैं। उनकी श्रद्धा, उनका उद्योग, उनमे से बहुतो की निःस्वार्ख त्याग किसी भी तामिल-तेलुगु के देखने पर मुझे याद आये बिना रहता ही नहीं। और ये सब लगभग निरक्षरों की गिनती में थे। जैसे पुरुष थे वैसी ही स्त्रियाँ थी। दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई ही निरक्षरो की और उसके योद्धा भी निरक्षर थे - वह गरीबी की लड़ाई थी और गरीब ही उसमें जूझे थे।
इन भोले और भले भारतवासियों का चित्त चुराने में मुझे भाषा की बाधा कभी न पड़ी। उन्हें टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी और टूटी-फूटी अंग्रेजी आती थी और उससे हमारी गाड़ी चल जाती थी। पर मैं तो इस प्रेम के प्रतिदान के रुप में तामिल-तेलुगु सीखना चाहता था। तामिल तो कुछ सीख भी ली। तेलुगु सीखने का प्रयास हिन्दुस्तान में किया, पर वह ककहरे के ज्ञान से आगे नहीं बढ़ सका।
मैं तामिल-तेलुगु नहीं सीख पाया और अब शायद ही सीख पाऊँ, इसलिए यह आशा रखे हुए हूँ कि ये द्राविड़ भाषा-भाषी हिन्दुस्तानी भाषा सीखेंगे। दक्षिण अफ्रीका के द्राविड़ 'मद्रासी' तो थोड़ी बहुत हिन्दी अवश्य बोल लेते हैं। मुश्किल तो अंग्रेजी पढे-लिखो की हैं। ऐसा प्रतीत होता हैं, मानो अंग्रेजी का ज्ञान हमारे लिए अपनी भाषाये सीखने में बाधारुप हो ! पर यह तो विषयान्तर हो गया। हन अपनी यात्रा पूरी करें।
अभी 'पोंगोला' के कप्तान का परिचय कराना बाकी है। हम परस्पर मित्र बन गये थे। यह भला कप्तान 'प्लीमथ ब्रदरन' सम्प्रदाय का था। इससे हमारे बीच नौकाशास्त्र की बातों की अपेक्षा अध्यातम-विद्या की बाते ही अधिक हुई। उसने नीति औऱ धर्मश्रद्धा में भेद किया। उसके विचार में बाइबल की शिक्षा बच्चो का खेल था। उसकी खूबी ही उसकी सरलता में थी। बालक, स्त्री, पुरुष सब ईसा को और उनके बलिदान को मान ले, तो उनके पाप धुल जाये। इस प्लीमथ ब्रदर ने प्रिटोरिया वाले ब्रदर के मेरे परिचय का ताजा कर दिया। जिस धर्म में नीति की रखवाली करनी पड़े, वह धर्म उसे नीरस प्रतीत हुआ। इस मित्रता औऱ आध्यात्मिकता चर्चा की जड़ में मेरा अन्नाहार था। मैं माँस क्यो नहीं खाता? गोमाँस में क्या दोष है? क्या पेड़-पौधो की तरह ही पशु-पक्षियों को भी ईश्वर ने मनुष्य आहार और आनन्द के लिए नहीं श्रृजा हैं? ऐसी प्रश्नावली आध्यात्मिक चर्चा उत्पन्न किये बिना रह ही नहीं सकती थी।
हम एक-दूसरे को अपने विचार समझा नहीं सके। मैं अपने इस विचार में ढृढ था कि धर्म और नीति एक ही वस्तु के वाचन हैं। कप्तान को अपने मत के सत्य होने में थोडी भी शंका नहीं थी।
चौबीस दिन के बाद यह आनन्दप्रद यात्रा पूरी हुई और हुगली का सौन्दर्य निहारता हुआ मैं कलकत्ते उतरा। उसी दिन मैंने बम्बई जाने का टिकट कटाया।
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