जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
बाकी का दिन मैंने प्रयाग के भव्य त्रिवेणी-संगम का दर्शन करने में और अपने सम्मुख पड़े हुए काम का विचार करने में बिताया।
इस आकस्मिक भेंट ने मुझ पर नेटाल में हुए हमले का बीज बोया।
बम्बई में रुके बिना मैं सीधा राजकोट गया और वहाँ एक पुस्तिका लिखने की तैयारी में लगा। पुस्तिका लिखने और छपाने में लगभग एक महीना बीत गया। उसका आवरण हरा था, इसलिए बाद में वह 'हरी पुस्तिका' के नाम से प्रसिद्ध हुई। उसमें दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों की स्थिति का चित्रण मैंने जान-बूझकर नरम भाषा में किया था। नेटाल में लिखी हुई दो पुस्तिकाओ में, जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूँ, मैंने जिस भाषा का प्रयोग किया था उससे नरम भाषा का प्रयोग इसमे किया था। क्योंकि मैं जानता था कि छोटा दुःख भी दूर से देखने पर बड़ा मालूम होता हैं।
'हरी पुस्तिका' की दस हजार प्रतियाँ छपायी थी और उन्हें सारे हिन्दुस्तान के अखवारो और सब पक्षों के प्रसिद्ध लोगों को भेजा था। 'पायोनियर' में उस पर सबसे पहले लेख निकला। उसका सारांश विलायत गया और सारांश का सारांश रायटर के द्वारा नेटाल पहुँचा। वह तार तो तीन पंक्तियो का था। नेटाल में हिन्दुस्तानियो के साथ होनेवाले व्यवहार का जो चित्र मैंने खीचा था, उसका वह लघु संस्करण था। वह मेरे शब्दों में नहीं था। उसका जो असर हुआ उसे हम आगे देखेंगे। धीरे-धीरे सब प्रमुख पत्रो में इस प्रश्न की विस्तृत चर्चा हुई।
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