जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
रामकृष्ण भांडारकार ने मेरा वैसा ही स्वागत किया, जैसा कोई बाप बेटे का करता हैं। उनके यहाँ गया तब दुपहरी का समय था। ऐसे समय में भी मैं अपना काम कर रहा था, यह चीज ही इस उद्यम शास्त्री को प्यारी लगी। और तटस्थ सभापति के लिए मेरे आग्रह की बात सुनकर 'देट्स इट देट्स इट' (यह ठीक हैं, यह ठीक हैं ) के उद्गार उनके मुँह से सहज ही निकल पड़े।
बातचीत के अन्त में वे बोले, 'तुम किसी से भी पूछोगे तो वह बतलायेगा कि आजकल मैं किसी राजनीतिक काम में हिस्सा नहीं लेता हूँ, पर तुम्हे मैं खाली हाथ नहीं लौटा सकता। तुम्हारा मामला इतना मजबूत हैं और तुम्हारा उद्यम इतना स्तुत्य हैं कि मैं तुम्हारी सभा में आने से इनकार कर ही नहीं सकता। यह अच्छा हुआ कि तुम श्री तिलक और श्री गोखले से मिल लिये। उनसे कहो कि मैं दोनों पक्षों द्वारा बुलायी गयी सभा में खुशी से आऊँगा और सभापति-पद स्वीकार करुँगा। समय के बारे में मुझ से पूछने की जरूरत नहीं हैं। दोनों पक्षों को जो समय अनुकूल होगा, उसके अनुकूल मैं हो जाऊँगा।' यों कहकर उन्होंने धन्यवाद औऱ आशीर्वाद के साथ मुझे बिदा किया।
बिना किसी हो-हल्ले और आडम्बर के एक सादे मकान में पूना की इस विद्वान और त्यागी मंडली ने सभा की, और मुझे सम्पूर्ण प्रोत्साहन के साथ बिदा किया।
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