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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


भूमिति की अपेक्षा संस्कृत ने मुझे अधिक परेशान किया। भूमिति में रटने की कोई बात थी ही नहीं, जब कि मेरी दृष्टि से संस्कृत में तो सब रटना ही होता था। यह विषय भी चौथी कक्षा में शुरू हुआ था। छठी कक्षा में मैं हारा। संस्कृत के शिक्षक बहुत कड़े मिजाज के थे। विद्यार्थियों को अधिक सिखाने का लोभ रखते थे। संस्कृत वर्ग और फारसी वर्ग के बीच एक प्रकार की होड़ रहती थी। फारसी सिखाने वाले मौलवी नरम मिजाज के थे। विद्यार्थी आपस में बात करते कि फारसी तो बहुत आसान हैं और फारसी सिक्षक बहुत भले हैं। विद्यार्थी जितना काम करते हैं, उतने से वे संतोष कर लेते हैं। मैं भी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी वर्ग में जाकर बैठा। संस्कृत शिक्षक को दुःख हुआ। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा: "यह तो समझ कि तू किनका लड़का हैं। क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा? तुझे जो कठिनाई हो सो मुझे बता मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ। आगे चल कर उसमें रस के घूंट पीने को मिलेंगे। तुझे यो तो हारना नहीं चाहिये। तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ।" मैं शरमाया। शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर मास्टर का उपकार मानती हैं। क्योंकि जितनी संस्कृत मैं उस समय सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों मैं जितना रस ले सकता हूँ उतना न ले पाता। मुझे तो इस बात का पश्चाताप होता हैं कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका। क्योंकि बाद में मैं समझा कि किसी भी हिन्दू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किये बिना रहना ही न चाहिये।

अब तो मैं यह मानता हूँ कि भारतवर्ष की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में मातृभाषा के अतिरिक्त हिन्दी, संस्कृत, फारसी, अरबी और अंग्रेजी का स्थान होना चाहिये। भाषा की इस संख्या से किसी को डरना नहीं चाहिये। भाषा पद्धतिपूर्वक सिखाई जाये और सब विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से सीखने-सोचने का बोझ हम पर न हो, तो ऊपर की भाषाये सीखना न सिर्फ बोझरुप न होगा, बल्कि उसमें बहुत ही आनन्द आयेगा। और जो व्यक्ति एक भाषा को शास्त्रीय पद्धति से सीख लेता हैं, उसके लिए दूसरी का ज्ञान सुलभ हो जाता हैं। असल में तो हिन्दी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं। इसी तरह फारसी और अरबी एक मानी जायें। यद्यपि फारसी और संस्कृत से मिलती-जुलती हैं और अरबी हिंब्रू से मेंल हैं, फिर भी दोनों का विकास इस्लाम के प्रकट होने के बाद हुआ हैं, इसलिए दोंनो के बीच निकट का संबन्ध हैं। उर्दू को मैंने अलग भाषा नहीं माना हैं, क्योंकि उसके व्याकरण का समावेश हिन्दी में हो जाता हैं। उसके शब्द फारसी और अरबी ही हैं। उँचे दर्जे की उर्दू जानने वाले के लिए अरबी और फारसी का ज्ञान जरुरी हैं, जैसे उच्च प्रकार की गुजराती, हिन्दी, बंगला, मराठी जानने वाले के लिए संस्कृत जानना आवश्यक हैं।

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