जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पुलिस के दस्ते के साथ मैं सही सलामत पारसी रुस्तमजी के घर पहुँचा। मेरी पीठ पर छिपी मार पड़ी थी। एक जगह थोड़ा खून निकल आया था। स्टीमर के डॉक्टर दादा बरजोर वहीं मौजूद थे। उन्होंने मेरी अच्छी सेवा-शुश्रषा की।
यो भीतर शान्ति थी, पर बाहर गोरो ने घर को घेर लिया। शाम हो चुकी थी। अंधेरा हो चला था। बाहर हजारों लोग तीखी आवाज में शोर कर रहे थे और 'गाँधी को हमें सौंप दो' की पुकार मचा रहे थे। परिस्थिति का ख्याल करके सुपरिटेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर वहाँ पहुँच गये थे औऱ भीड़ को धमकी से नहीं, बल्कि उसका मन बहलाकर वश में रख रहे थे।
फिर भी वे निश्चित तो नहीं थे। उन्होंने मुझे इस आशय का संदेशा भेजा : 'यदि आप अपने मित्र के मकान, माल-असबाब और अपने बाल-बच्चों को बचाना चाहते हो, तो जिस तरह मैं कहूँ उस तरह आपको इस घर से छिपे तौर पर निकल जाना चाहिये।'
एक ही दिन में मुझे एक-दूसरे के विरुद्ध दो काम करने का प्रसंग आया। जब प्राणों का भय केवल काल्पनिक प्रतीत होता था, तब मि. लाटन ने मुझे प्रकट रुप से बाहर निकले की सलाह दी और मैंने उसे मान लिया। जब संकट प्रत्यक्ष मेरे सामने आकर खड़ा हो गया, तब दूसरे मित्र ने इससे उल्टी सलाह दी और मैंने उसे भी मान लिया। कौन कह सकता हैं कि मैं अपने प्राणों के संकट से डरा या मित्र के जान-माल की जोखिम से अथवा अपने परिवार की प्राणहानि से या तीनों से? कौन निश्चय-पूर्वक कह सकता हैं कि मेरा स्टीमर से हिम्मत दिखाकर उतरना और बाद में संकट से प्रत्यक्ष सामने आने पर छिपकर भाग निकलना उचित था? पर घटित घटनाओं के बारे में इस तरह की चर्चा ही व्यर्थ हैं। उनका उपयोग यही हैं कि जो हो चुका हैं, उसे समझ ले औऱ उससे जितना सीखने को मिले, सीख ले। अमुक प्रसंग में अमुक मनुष्य ने क्या करेगा, यह निश्चिय पूर्वक कहा ही नहीं जा सकता। इसी तरह हम यह भी देख सकते हैं कि मनुष्य के बाहरी आचरण से उसके गुणों की जो परीक्षा की जाती हैं, वह अधूरी और अनुमात्र-मात्र होती है।
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