जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
ब्रह्मदेश से लौटने के बाद मैंने गोखले से बिदा ली। उनका वियोग मुझे अखरा, पर बंगाल - अथवा सच कहा जाय तो कलकत्ते का -- मेरा काम पूरा हो चुका था।
मैंने सोचा था कि धन्धे में लगने से पहले हिन्दुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में करुँगा और तीसरे दर्जें में यात्रियों का परिचय प्राप्त करके उनका कष्ट जान लूँगा। मैंने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा। उन्होंने पहले तो उसे हँस कर उड़ा दिया। पर जब मैंने इस यात्रा के विषय में अपनी आशाओं का वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नता-पूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी। मुझे पहले तो काशी जाना था और वहाँ पहुँचकर विदुषी एनी बेसेंट के दर्शन करने थे। वे उस समय बीमार थी।
इस यात्रा के लिए मुझे नया सामान जुटाना था। पीतल का एक डिब्बा गोखले ने ही दिया और उसमें मेरे लिए बेसन के लड्डू और पूरियाँ रखवा दी। बारह आने में किरमिच का एक थैला लिया। छाया (पोरबन्दर के पास के एक गाँव) की ऊन का एक ओवरकोट बनवाया। थैले में यह ओवरकोट, तौलिया, कुर्ता और धोती थी। ओढने को एक कम्बल था। इसके अलावा एक लोटा भी साथ में रख लिया था। इतना सामान लेकर मैं निकला।
गोखले और डॉ. राय मुझे स्टेशन तक पहुँचाने आये। मैंने दोनोंं से न आने की बिनती की। पर दोनोंं ने आने का अपना आग्रह न छोड़ा। गोखले बोले, 'तुम पहले दर्जे में जाते तो शायद मैं न चलता, पर अब तो मुझे चलना ही पड़ेगा।'
प्लेटफार्म पर जाते समय गोखले को किसी ने नहीं रोका। उन्होंने अपनी रेशमी पगड़ी बाँधी और धोती तथा कोट पहना था। डॉ. राय ने बंगाली पोशाक पहनी थी, इसलिए टिकट-बाबू में पहले तो उन्हें अन्दर जाने से रोका, पर जब गोखने ने कहा, 'मेरे मित्र हैं।' तो डॉ. राय भी दाखिल हुए। इस तरह दोनोंं ने मुझे बिदा किया।
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