जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
रेलवे-विभाग की ओर से होनेवाली इन असुविधाओं के अलावा यात्रियों की गन्दी आदतें सुधड़ यात्री के लिए तीसरे दर्जे की यात्रा को दंड-स्वरूप बना देती हैं। चाहे जहाँ थूकना, चाहे जहाँ कचरा डालना, चाहे जैसे और चाहे जब बीड़ी पीना, पान-तम्बाकू चबाना और जहाँ बैठे वहीं उसकी पिचकारियाँ छोड़ना, फर्श पर जूठन गिराना, चिल्ला-चिल्ला कर बाते करना, पास में बैठे हुए आदमी की सुख-सुविधा का विचार न करना और गन्दी बोली बोलना - यह तो सार्वत्रिक अनुभव हैं।
तीसरे दर्जे की यात्रा के अपने 1902 के अनुभव में और 1915 और 1919 तक के मेरे अनुभव दूसरी बार के ऐसे ही अखंड अनुभव में मैंने बहुत अन्तर नहीं पाया। इस महाव्याधि का एक ही उपाय मेरी समझ में आया हैं, और वह यह कि शिक्षित समाज को तीसरे दर्जे में ही यात्रा करनी चाहिये औऱ लोगों की आदतें सुधारने का प्रयत्न करना चाहियें। इसके अलावा, रेलवे विभाग के अधिकारियों को शिकायत कर करके परेशान कर डालना चाहिये, अपने लिए कोई सुविधा प्राप्त करने या प्राप्त सुविधा की रक्षा करने के लिए घूस-रिश्वत नहीं देनी चाहियें और उनके एक भी गैरकानूनी व्यवहार को बरदाश्त नहीं करना चाहिये।
मेरा यह अनुभव है कि ऐसा करने से बहुत कुछ सुधार हो सकता हैं। अपनी बीमारी के कारण मुझे सन् 1920 से तीसरे दर्जे की यात्रा लगभग बन्द कर देनी पड़ी हैं, इसका दुःख और लज्जा मुझे सदा बनी रहती हैं। और वह भी ऐसे अवसर पर बन्द करनी पड़ी, जब तीसरे दर्जे के यात्रियो की तकलीफो को दूर करने का काम कुछ ठिकाने लग रहा था। रेलो और जहाजों में गरीब यात्रियों को भोगने पड़ते कष्टो में होनेवाली वृद्धि, व्यापार के निमित्त से विदेशी व्यापार को सरकार की ओर से दी जाने वाली अनुचित सुविधाये आदि बाते इस समय हमारे लोक-जीवन की बिल्कुल अलग और महत्त्व की समस्या बन गयी हैं। अगर इसे हल करने में एक-दो चतुर और लगनवाले सज्जन अपना पूरा समय लगा दे, तो अधिक नहीं कहा जायेगा।
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