जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
गाँधी कुटुम्ब बड़ा था। आज भी हैं। मेरी भावना यह थी कि उनमें से जो स्वतंत्र होना चाहे, वे स्वतंत्र हो जाये। मेरे पिता कइयो को निभाते थे, पर रियासती नौकरी में। मुझे लगा कि वे इस नौकरी से छूट सके तो अच्छा हो। मैं उन्हें नौकरियाँ दिलाने में मदद नहीं कर सकता था। शक्ति होती तो भी ऐसा करने की मेरी इच्छा न थी। मेरी धारणा यह थी कि वे और दूसरे लोग भी स्वावलम्बी बने तो अच्छा हो।
पर आखिर तो जैसे-जैसे मेरे आदर्श आगे बढ़ते गये (ऐसा मैं मानता हूँ ), वैसे-वैसे इन नौजवानो के आदर्शो को भी मैंने अपने आदर्शो की ओर मोडने का प्रयत्न किया। उनमें मगनाला गाँधी को अपने मार्ग पर चलाने में मुझे बहुत सफलता मिला। पर इस विषय की चर्चा आगे करूँगा।
बाल-बच्चो का वियोग, बसाये हुए घर को तोड़ना, निश्चित स्थिति में से अनिश्चित में प्रवेश करना - यह सब क्षणभर तो अखरा। पर मुझे तो अनिश्चित जीवन की आदत पड़ गयी थी। इस संसार में, जहाँ ईश्वर अर्थात् सत्य के सिवा कुछ भी निश्चित नहीं हैं . निश्चितता का विचार करना ही दोषमय प्रतीत होता है। यह सब जो हमारे आसपास दीखता हैं और होता है, सो अनिश्चित हैं, क्षणिक है। उसमें एक परम तत्त्व निश्चित रुप से छिपा हुआ हैं, उसकी झाँकी हमे हो जाये, उस पर हमारी श्रद्धा बनी रहे, तभी जीवन सार्थक होता है। उसकी खोज ही परम पुरुषार्थ है।
यह नहीं कहा जा सकता कि मैं डरबन एक दिन ही पहले पहुँचा। मेरे लिए वहाँ काम तैयार ही था। मि. चेम्बरलेन के पास डेप्युटेशन के जाने की तारीख निश्चित हो चुकी थी। मुझे उनके सामने पढ़ा जानेवाला प्रार्थना पत्र तैयार करना था और डेप्युटेशन के साथ जाना था।
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