जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पर दक्षिण अफ्रीका में मेरी स्थिति बदल गयी और फलतः मेरे विचार भी बदल गये। दक्षिण अफ्रीका की नयी आपत्ति के समय मैंने जो कदम उठाये, सो ईश्वर को साक्षी रखकर ही उठाये थे। दक्षिण अफ्रीका में मेरा कितना समय चला जायेगा, इसकी मुझे कोई कल्पना नहीं थी। मैंने समझ लिया था कि मैं हिन्दुस्तान वापस नहीं जा पाउँगा। मुझे अपने बाल-बच्चो को साथ ही रखना चाहियें। अब उनका वियोग बिल्कुल नहीं होना चाहियें। उनके भरण-पोषण की व्यवस्था भी दक्षिण अफ्रीका में ही होनी चाहिये। इस प्रकार सोचने के साथ ही उक्त पॉलिसी मेरे लिए दुःखद बन गयी। बीमा-एजेंट के जाल में फँस जाने के लिए मैं लज्जित हुआ। 'यदि बड़े भाई पिता के समान हैं तो छोटे भाई की विधवा के बोझ को वे भारी समझेंगे यह तूने कैसे सोच लिया? यह भी क्यों माना कि तू ही पहले मरेगा? पालन करनेवाला तो ईश्वर हैं। न तू हैं, न भाई हैं। बीमा कराकर तूने बाल-बच्चो को भी पराधीन बना दिया हैं। वे स्वावलंभी क्यों न बने? असंख्य गरीबो के बाल-बच्चो का क्या होता है? तू अपने को उन्हीं के समान क्यों नहीं मानता?'
इस प्रकार विचारधारा चली। उस पर अमल मैंने तुरन्त ही नहीं किया था। मुझे याद हैं कि बीमे की एक किस्त तो मैंने दक्षिण अफ्रीका से भी भेजी थी।
पर इस विचार-प्रवाह की बाहर का उत्तेजन मिला। दक्षिण अफ्रीका की पहली यात्रा में मैं ईसाई वातावरण के सम्पर्क में आकर धर्म के प्रति जाग्रत बना था। इस बार मैं थियॉसॉफी के वातावरण के संसर्ग में आया। मि. रीच थियॉसॉफिस्ट थे। उन्होंने मेरा सम्बन्ध जोहानिस्बर्ग की सोसायटी से करा दिया। मैं उसका सदस्य तो नहीं ही बना। थियॉसॉफी के सिद्धान्तो से मेरा मतभेद बना रहा। फिर भी मैं लगभग हरएक थियॉसॉफिस्ट के गाढ़ परिचय में आया। उनके साथ रोज मेरी धर्म-चर्चा होती थी। मैं उनकी पुस्तके पढ़ता था। उनकी सभा में बोलने के अवसर भी मुझे आते थे। थियॉसॉफी में भाईचारा स्थापित करना और बढ़ना मुख्य वस्तु हैं। हम लोग इस विषय की खूब चर्चा करते थे और जहाँ मैं इस सिद्धान्त में और सदस्यों के आचरण में भेद पाता, वहाँ आलोचना भी करता था। स्वयं मुझ पर इस आलोचना का काफी प्रभाव पड़ा। मैं आत्म-निरीक्षण करना सीख गया।
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