जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
एक मुवक्किल मित्र से मैंने अपने इस लेन-देन की चर्चा की। उन्होंने मुझे मीठा उलाहना देते हुए जाग्रत किया, 'भाई, यह आपका काम नहीं हैं। हम तो आपके विश्वास पर चलने वाले हैं। यह पैसा आपको वापस नहीं मिलेगा। बदरी को आप बचा लेंगे और अपना पैसा खोयेंगे। पर इस तरह के सुधार के कामों में सब मुवक्किलों के पैसे देने लगेंगे, तो मुवक्किल मर जायेंगे और आप भिखमंगे बनकर घर बैठेंगा। इससे आपके सार्वजनिक काम को क्षति पहुँचेगी।'
सौभाग्य से ये मित्र अभी जीवित हैं। दक्षिण अफ्रीका में और दूसरी जगह उनसे अधिक शुद्ध मनुष्य मैंने नहीं देखा। किसी के प्रति उनके मन में शंका उत्पन्न हो और उन्हें जान पड़े कि यह शंका खोटी है तो तुरन्त उससे क्षमा माँगकर अपनी आत्मा को साफ कर लेते हैं। मुझे इस मुवक्किल की चेतावनी सच मालूम हुई। बदरी की रकम तो मैं चुका सका। पर दूसरे हजार पौंड यदि उन्हीं दिनों मैंने खो दिये होते, तो उन्हें चुकाने की शक्ति मुझ में बिल्कुल नहीं थी। उसके लिए मुझे कर्ज ही लेना पड़ता। यह धंधा तो मैंने अपनी जिन्दगी में कभी नहीं किया और इसके लिए मेरे मन में हमेशा ही बड़ी अरुचि रही हैं। मैंने अनुभव किया कि सुधार करने के लिए भी अपनी शक्ति से बाहर जाना उचित नहीं था। मैंने यह भी अनुभव किया कि इस प्रकार पैसे उधार देने में मैंने गीता के तटस्थ निष्काम कर्म के मुख्य पाठ का अनादर किया था। यह भूल मेरे लिए दीपस्तम्भ-सी बन गयी।
निरामिषाहार के प्रचार के लिए ऐसा बलिदान करने की मुझे कोई कल्पना न थी। मेरे लिए वह जबरदस्ती का पुण्य बन गया।
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