जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैं यह बीमारी के बिछौने पर पड़ा-पड़ा लिखा रहा हूँ, इस कारण कोई इन विचारों की अवगणना न करे। मैन अपनी बीमारी के कारण जानता हूँ। मुझे इस बात का पूरा-पूरा ज्ञान हैं और भान हैं कि मैन अपने ही दोषो के कारण मैं बीमार पड़ा हूँ और इस भान के कारण ही मैंने धीरज नहीं छोड़ा है। इस बीमारी को मैंने ईश्वर का अनुग्रह माना हैं और अनेक दवाओं के सेवन के लालच से मैं दूर रहा हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि अपने हठ से मैं डॉक्टर मित्रों को परेशाम कर देता हूँ, पर वे उदार भाव से मेरे हठ को सह लेते है और मेरा त्याग नहीं करते।
पर मुझे इस समय की अपनी स्थिति के वर्णन को अधिक बढ़ाना नहीं चाहिये, इसलिए हम सन् 1904-05 के समय की तरफ लौट आवे।
पर आगे बढ़कर उसका विचार करने से पहले पाठकों को थोड़ साबधान करने की आवश्यकता हैं। यह लेख पढ़कर जो जुस्ट की पुस्तके खरीदे, वे उसकी हर बात को वेदवाक्य न समझे। सभी रचनाओ में प्रायः लेखक की एकांगी दृष्टि रहती हैं। किन्तु प्रत्येक वस्तु को कम से कम सात दृष्टियो से देखा जा सकता है और उस उस दृष्टि से वह वस्तु सच होती है। पर सब दृष्टियाँ एक ही समय पर कभी सच नहीं होती। साथ ही, कई पुस्तकों में बिक्री के और नाम के लालच का दोष भी होता है। अतएव जो कोई उक्त पुस्तक को पढ़े वे उसे विवेक पूर्वक पढ़े और कुछ प्रयोग करने हो तो किसी अनुभवी की सलाह लेकर करें अथवा धैर्य-पूर्वक ऐसी वस्तु का थोड़ा अभ्यास करके प्रयोग आरंभ करें।
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