जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मोती की बूँदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना। इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता हैं।
रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे।
(राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो वही जान सकता हैं।)
मेरे लिए यह अंहिसा का पदार्थपाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा, पर आज मैं इसे शुद्ध अंहिसा के नाम से पहचान सकता हूँ। ऐसी अंहिसा के व्यापक रुप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता हैं? ऐसी व्यापक अंहिसा की शक्ति की थाह लेना असम्भव हैं।
इस प्रकार की शान्त क्षमा पिताजी के स्वभाव के विरुद्ध थी। मैंने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे, शायद अपना सिर पीट लेंगे। पर उन्होंने इतनी अपार शान्ति जो धारण की, मेरे विचार उसका कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी। जो मनुष्य अधिकारी के सम्मुख स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपराध स्वीकार कर लेता हैं और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता हैं, वह शुद्धतम प्रायश्चित करता हैं।
मैं जानता हूँ कि मेरी इस स्वीकृति से पिताजी मेरे विषय में निर्भय बने और उनका महान प्रेम और भी बढ़ गया।
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