जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
इससे पहले मैंने रस्किन की एक भी पुस्तक नहीं पढी थी। विद्याध्ययन के समय में पाठ्यपुस्तको के बाहर की मेरी पढ़ाई लगभग नहीं के बराबर मानी जायगी। कर्मभूमि में प्रवेश करने के बाद समय बहुत कम बचता था। आज भी यही कहा जा सकता हैं। मेरा पुस्तकीय ज्ञान बहुत ही कम है। मैं मानता हू कि इस अनायास अथवा बरबस पाले गये संयम से मुझे कोई हानि नहीं हुई। बल्कि जो थोडी पुस्तके मैं पढ पाया हूँ, कहा जा सकता हैं कि उन्हें मैं ठीक से हजम कर सका हूँ। इन पुस्तकों में से जिसने मेरे जीवन में तत्काल महत्त्व के रचनात्मक परिवर्तन कराये, वह 'अंटु दिस लास्ट' ही कही जा सकती हैं। बाद में मैंने उसका गुजराती अनुवाद किया औऱ वह 'सर्वोदय' नाम से छपा।
मेरा यह विश्वास है कि जो चीज मेरे अन्दर गहराई में छिपी पड़ी थी, रस्किन के ग्रंथरत्न में मैंने उनका प्रतिबिम्ब देखा। औऱ इस कारण उसने मुझ पर अपना साम्राज्य जमाया और मुझसे उसमें अमल करवाया। जो मनुष्य हममे सोयी हुई उत्तम भावनाओ को जाग्रत करने की शक्ति रखता है, वह कवि है। सब कवियों का सब लोगों पर समान प्रभाव नहीं पडता, क्योंकि सबके अन्दर सारी सद्भावनाओ समान मात्रा में नहीं होती।
मैं 'सर्वोदय' के सिद्धान्तों को इस प्रकार समझा हूँ :
2. वकील और नाई दोनों के काम की कीमत एक सी होनी चाहिये, क्योंकि आजीविका का अधिकार सबको एक समान है।
3. सादा मेहनत मजदूरी का किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।
पहली चीज मैं जानता था। दूसरी को धुँधले रुप में देखता था। तीसरी की मैंने कभी विचार ही नहीं किया था। 'सर्वोदय' ने मुझे दीये की तरह दिखा दिया कि पहली चीज में दूसरी चीजें समायी हुई है। सवेरा हुआ और मैं इन सिद्धान्तों पर अमल करने के प्रयत्न में लगा।
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