जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पोलाक कूद पड़े
मेरे लिए यह हमेशा दुःख की बात रही हैं कि फीनिक्स जैसी संस्था की स्थापना के बाद मैं स्वयं उसमें कुछ ही समय तक रह सका। उसकी स्थापना के समय मेरी कलपना यह थी कि मैं वहाँ बस जाऊँगा, अपनी आजीविका उसमें से प्राप्थ करूँगा, धीरे -धीरे वकालत छोड़ दूँगा, फीनिक्स में रहते हुए जो सेवा मुझसे हो सकेगी करूँगा और फीनिक्स की सफलता को ही सेवा समझूँगा। पर इन विचारों पर सोचा हुआ अमल हुआ ही नहीं। अपने अनुभव के द्वारा मैंने अक्सर यह देखा हैं कि हम चाहते कुछ हैं और हो कुछ और ही जाता हैं। पर इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया हैं कि जहाँ सत्य की ही साधना और उपासना होती है, वहाँ भले परिणाम हमारी धारणा के अनुसार न निकले, फिर भी जो अनपेक्षित परिणाम निकलता हैं वह अकल्याणकारी नहीं होता और कई बार अपेक्षा से अधिक अच्छा होता है। फीनिक्स में जो अनसोचे परिणाम निकले और फीनिक्स ने जो अनसोचा स्वरुप धारण किया वह अकल्याणकारी न था इतना तो मैं निश्चय-पूर्वक कह सकता हूँ। उन परिणामों को अधिक अच्छा कहा जा सकता है या नहीं, इसके सम्बन्ध में निश्चय-पूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता।
हम सब अपनी मेंहनत से अपना निर्वाह करेंगे, इस ख्याल से मुद्रणालय के आसपास प्रत्येक निवासी के लिए जमीन के तीन-तीन एकड़ के टुकडे कर लिये गये थे। इनमें एक टुकड़ा मेरे लिए भी मापा गया था। इस सब टुकड़ो पर हममे से हरएक की इच्छा के विरुद्ध हमने टीन की चद्दरों के घर बनाये। इच्छा तो किसान को शोभा देनेवाले घासफूस और मिट्टी के अथवा ईट के घर बाँधने की थी, पर वह पूरी न हो सकी। उसमें पैसा अधिक खर्च होता था और समय अधिक लगता था। सब जल्दी से घरबार वाले बनने और काम में जुट जाने के लिए उतावले हो गये थे।
पत्र के सम्पादक तो मनसुखलाल नाजर ही माने जाते थे। वे इस योजना में सम्मिलित नहीं हुए थे। उनका घर डरबन में ही था। डरबन में 'इंडियन ओपीनियन' की एक छोटी-सी शाखा भी थी।
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