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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


पर जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा, वह था रामायण का पारायण। पिताजी की बीमारी का थोड़ा समय पोरबन्दर में बीता था। वहाँ वे रामजी के मन्दिर में रोज रात के समय रामायण सुनते थे। सुनानेवाले थे बीलेश्वर के लाधा महाराज नामक एक पंडित थे। वे रामचन्द्रजी के परम भक्त थे। उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें कोढ़ की बीमारी हुई तो उसका इलाज करने के बदले उन्होंने बीलेश्वर महादेव पर चढे हुए बेलपत्र लेकर कोढ़ वाले अंग पर बाँधे और केवल रामनाम का जप शुरू किया। अन्त में उनका कोढ़ जड़मूल से नष्ट हो गया। यह बात सच हो या न हो, हम सुनने वालों ने तो सच ही मानी। यह सच भी हैं कि जब लाधा महाराज ने कथा शुरू की तब उनका शरीर बिल्कुल नीरोग था। लाधा महाराज का कण्ठ मीठा था। वे दोहा-चौपाई गाते और उसका अर्थ समझाते था। स्वयं उसके रस में लीन हो जाते थे। और श्रोताजनों को भी लीन कर देते थे। उस समय मेरी उमर तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता हैं कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था। यह रामायण - श्रवण रामायण के प्रति मेरे अत्याधिक प्रेम की बुनियाद हैं। आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ।

कुछ महीनों के बाद हम राजकोट आये। वहाँ रामायण का पाठ नहीं होता था। एकादशी के दिन भागवत जरुर पढ़ी जाती थी। मैं कभी-कभी उसे सुनने बैठता था। पर भटजी रस उत्पन्न नहीं कर सके। आज मैं यह देख सकता हूँ कि भागवत एक ऐसा ग्रंथ हैं, जिसके पाठ से धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता हैं। मैंने तो से उसे गुजराती में बड़े चाव से पढ़ा हैं। लेकिन इक्कीस दिन के अपने उपवास काल में भारत-भूपण पंडित मदनमोहन मालवीय के शुभ मुख से मूल संस्कृत के कुछ अंश जब सुने तो ख्याल हुआ कि बचपन में उनके समान भगवद-भक्त के मुँह से भागवत सुनी होती तो उस पर उसी उमर में मेरा गाढ़ प्रेम हो जाता। बचपन में पड़े शूभ-अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़े जमाते हैं, इसे मैं खूब अनुभव करता हूँ ; और इस कारण उस उमर में मुझे कई उत्तम ग्रंथ सुनने का लाभ नहीं मिला, सो अब अखरता हैं। राजकोट में मुझे अनायास ही सब सम्प्रदायों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा मिली। मैंने हिन्दू धर्म के प्रत्येक सम्प्रदाय का आदर करना सीखा, क्योंकि माता-पिता वैष्णव-मन्दिर में, शिवालय में और राम-मन्दिर में भी जाते और हम भाईयों को भी साथ ले जाते या भेजते थे।

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