जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पाठ्यपुस्तको की जो पुकार जब-जब सुनायी पड़ती है, उसकी आवश्यकता मुझे कभी मालूम नहीं हुई। मुझे याद नहीं पड़ता कि जो पुस्तके हमारे पास थी उनका भी बहुत उपयोग किया गया हो। हरएक बालक को बहुत सी पुस्तके दिलाने की मैंने जरूरत नहीं देखी। मेरा ख्याल है कि शिक्षक ही विद्यार्थियो ती पाठ्यपुस्तक है। मेरे शिक्षको ने पुस्तको की मदद से मुझे जो सिखाया था, वह मुझे बहुत ही कम याद रहा है। पर उन्होंने अपने मुँह से जो सिखाया था, उसका स्मरण आज भी बना हुआ है। बालक आँखो से जितना ग्रहण करते है, उसकी अपेक्षा कानो से सुनी हुई बातो को वे थोड़े परिश्रम से और बहुत अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकते है। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैं बालकों को एक भी पुस्तक पूरी पढ़ा पाया था।
पर अनेकानेक पुस्तकों में से जितना कुछ मैं पचा पाया था, उसे मैंने अपनी भाषा में उनके सामने रखा था। मैं मानता हूँ कि वह उन्हे आज भी याद होगा। पढ़ाया हुआ याद रखने में उन्हें कष्ट होता था, जब कि मेरी कही हुई बात को वे उसी समय मुझे फिर सुना देते थे। जब मैं थकावट के कारण या अन्य किसी कारण से मन्द और नीरस न होता, तब वे मेरी बात रस-पूर्वक और ध्यान-पूर्वक सुनते थे। उनके पूछे हुए प्रश्नो का उत्तर देने में मुझे उनकी ग्रहण शक्ति का अन्दाजा हो जाता था।
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