जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
प्रायश्चित-रुप उपवास
प्रामाणिकता-पूर्वक बालकों और बालिकाओ के पालन-पोषण और शिक्षण में कितनी कठिनाइयो आती है, इसका अनुभव दिन-दिन बढ़ता गया। शिक्षक और अभिभावक के नाते मुझे उनके हृदय में प्रवेश करना था, उनके सुख-दुःख में हाथ बँटाना था, उनके जीवन की गुत्थियाँ सुलझानी थी और उनकी उछलती जवानी की तरंगो को सीधे मार्ग पर ले जाना था।
कुछ जेलवासियो के रिहा होने पर टॉल्सटॉय आश्रम में थोड़े ही लोग रह गये। इनमे मुख्यतः फीनिक्सवासी थे। इसलिए मैं आश्रम को फीनिक्स ले गया। फीनिक्स में मेरी कड़ी परीक्षा हुई। टॉल्सटॉय आश्रम में बचे हुए आश्रमवासियो को फीनिक्स छोड़कर मैं जोहानिस्बर्ग गया। वहाँ कुछ ही दिन रहा था कि मेरे पास दो व्यक्तियो के भयंकर पतन के समाचार पहुँचे। सत्याग्रह की महान लड़ाई में कहीँ भी निष्फलता-जैसी दिखायी पड़ती, तो उससे मुझे कोई आघात न पहुँचता था। पर इस घटना में मुझ पर वज्र-सा प्रहार किया। मैं तिलमिला उठा। मैंने उसी दिन फीनिक्स की गाड़ी पकड़ी। मि. केलनबैक ने मेरे साथ चलने का आग्रह किया। वे मेरी दयाजनक स्थिति को समझ चुके थे। मुझे अकेले जाने देने की उन्होंने साफ मनाही कर दी। पतन के समाचार मुझे उन्ही के द्वारा मिले थे।
रास्ते में मैंने अपना धर्म समझ लिया, अथवा यो कहिये कि समझ लिया ऐसा मानकर मैंने अनुभव किया कि अपनी निगरानी में रहने वालो के पतन के लिए अभिभावक अथवा शिक्षक न्यूनाधिक अंश में जरूर जिम्मेदार है। इस घटना में मुझे अपनी जिम्मेदारी स्पष्ट जान पड़ी। मेरी पत्नी ने मुझे सावधान तो कर ही दिया था, किन्तु स्वभाव से विश्वासी होने के कारण मैंने पत्नी की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया था। साथ ही, मुझे यह भी लगा कि इस पतन के लिए मैं प्रायश्चित करूँगा तो ही ये पतित मेरा दुःख समझ सकेंगे और उससे उन्हे अपने दोष का भान होगा तथा उसकी गंभीरता का कुछ अंदाज बैठेगा। अतएव मैंने सात दिन के उपवास और साढे चार महीने के एकाशन का व्रत लिया। मि. केलनबैक ने मुझे रोकने का प्रयत्न किया, पर वह निष्फल रहा। आखिर उन्होंने प्रायश्चित के औचित्य को माना और खुद ने भी मेरे साथ व्रत रखने का आग्रह किया। मैं उनके निर्मल प्रेम को रोक न सका। इस निश्चय के बाद मैं तुरन्त ही हलका हो गया, शान्त हुआ, दोषियो के प्रति मेरे मन में क्रोध न रहा, उनके लिए मन में दया ही रही।
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