जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
दक्षिण अफ्रीका में इसकी परीक्षा तो बहुत बार हो चुकी थी। मैं जानता था कि प्रतिपक्ष के साक्षियो को सिखाया-पढाया गया है औक यदि मैं मुवक्किलो को अथवा साक्षी को तनिक भी झूठ न बोलने के लिए प्रोत्साहित कर दूँ, तो मुवक्किल के केस में कामयाबी मिल सकती है। किन्तु मैंने हमेशा इस लालच को छोड़ा है। मुझे ऐसी एक घटना याद है कि जब मुवक्किल का मुकदमा जीतने के बाद मुझे यह शक हुआ कि मुवक्किल ने मुझे धोखा दिया है। मेरे दिल में भी हमेशा यही ख्याल बना रहता था कि अगर मुवक्किल का केस सच्चा हो तो उसमें जीत मिले और झूठे हो तो उनकी हार हो। मुझे याद नहीं पड़ता कि फीस लेते समय मैंने कभी हार-जीत के आधार पर फीस की दरे तय की हो। मुवक्किल होर या जीते, मैं तो हमेशा अपना मेंहनताना ही माँगता था और जीतने पर भी उसी की आथा रखता था। मुवक्किल को मैं शुरू से ही कह देता था,'मामला झूठा हो तो मेरे पास मत आना। साक्षी को सिखाने पढाने का काम कराने की मुझ से कोई आशा न रखना।' आखिर मेरी साख तो यही कायम हुई थी कि झूठे मुकदमे मेरे पास आते ही नहीं। मेरे कुछ ऐसे मुवक्किल भी थे, जो अपने सच्चे मामले तो मेरे पास लाते थे और जिनमे थोड़ी भी खोट-खराबी पास ले जाते थे।
एक अवसर ऐसा भी आया, जब मेरी बहुत बड़ी परीक्षा हुई। मेरे अच्छे से अच्छे मुवक्किलो में से एक का यह मामला था। उसमें बहीखातो की भारी उलझने थी। मुकदमा बहुत ल्मबे समय तक चका था। उसके कुछ हिस्से कई अदालतो में गये थे। अन्त में अदालत द्वारा नियुक्त हिसाब जानने वाले पंच को उसका हिसाबी हिस्सा सौपा गया था। पंच के फैसले में मेरे मुवक्किल की पूरी जीत थी। किन्तु उसके हिसाब में एक छोटी परन्तु गंभीर भूल रह गया था। जमा-खर्च की रकम पंच के दृष्टिदोष से इधर की उधर ले ली गयी थी। प्रतिपक्षी ने पंच के इस फैसले को रद्द करने की अपील की थी। मुवक्किल की ओर से मैं छोटा वकील था। बड़े वकील ने पंच की भूल देखी थी, पर उनकी राय थी कि पंच की भूल कबूल करना मुवक्किल के लिए बंधनरूप नहीं है। उनका यह स्पष्ट मत था कि ऐसी किसी बात को स्वीकार करने के लिए कोई वकील बँधा हुआ नहीं है, जो उसके मुवक्किल के हित के विरुद्ध जाय। मैंने कहा, 'इस मुकदमे में रही हुई भूल स्वीकार की ही जानी चाहिये।'
बड़े वकील ने कहा, 'ऐसा होने पर इस बात का पूरा डर है कि अदालत सारे फैसले को ही रद्द कर दे और कोई होशियार वकील मुवक्किल को ऐसी जोखिम ने नहीं डालेगा। मैं तो यह जोखिम उठाने को कभी तैयार न होऊँगा। मुकदमा फिर से चलाना पड़े तो मुवक्किल को कितने खर्च में उतरना होगा? और कौन कह सकता है कि अंतिन परिणाम क्या होगा?'
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