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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मैंने उन्हें समझाया, 'इस मामले को अदालत में जाने लायक नहीं मानता। मुकदमा चलाना न चलाना चुंगी अधिकारी के हाथ में हैं। उसे भी सरकार के मुख्य वकील की सलाह के अनुसार चलना पड़ेगा। मैं दोनों से मिलने को तैयार हूँ, पर मुझे तो उनके सामने उस चोरी को भी स्वीकार करना पड़ेगा, जिसे वे नहीं जानते। मैं सोचता हूँ कि जो दंड वे ठहराये उसे स्वीकार कर लेना चाहिये। बहुत करके तो वे मान जायेंगे। पर कदाचित् न माने तो आपको जेल के लिए तैयार रहना होगा। मेरा तो यह मत है कि लज्जा जेल जाने में नहीं, बल्कि चोरी करने में हैं। लज्जा का काम तो हो चुका है। जेल जाना पड़े तो उसे प्रायश्चित समझिये। सच्चा प्रायश्चित तो भविष्य में फिर से कभी चुंगी की चोरी न करने की प्रतिज्ञा में हैं।'

मैं नहीं कह सकता कि रूस्तम जी सेठ इस सारी बातो को भलीभाँति समझ गये थे। वे बहादुर आदमी थे। पर इस बार हिम्मत हार गये थे। उनकी प्रतिष्ठा नष्ट होने का समय आ गया था। और प्रश्न यह था कि कहीं उनकी अपनी मेंहनत से बनायी हुई इमारत ढह न जाये।

वे बोले, 'मैं आपसे कह चुका हूँ कि मेरा सिर आपकी गोद में हैं। आपको जैसा करना हो वैसा कीजिये।'

मैंने इस मामले में विनय की अपनी सारी शक्ति लगा दी। मैं अधिकारी से मिला और सारी चोरी की बात उससे निर्भयता पूर्वक कह दी। सब बहीखाते दिखा देने को कहा और पारसी रूस्तम जी के पश्चाताप की बात भी कही।

अधिकारी में कहा, 'मैं इस बूढे पारसी को चाहता हूँ। उसने मूर्खता की हैं। पर मेरा धर्म तो आप जानते हैं। बड़े वकील जैसा कहेंगे वैसा मुझे करना होगा। अतएव अपनी समझाने की शक्ति का उपयोग आपको उनके सामने करना होगा।'

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