जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
हमने शांतिनिकेतन में ही देख लिया था कि भंगी का काम करना हिन्दुस्तान में हमारा खास धंधा ही बन जायगा। स्वयंसेवको के लिए किसी धर्मशाला में तम्बू लगाये गये थे। पाखानो के लिए डॉ. देव ने गड्ढे खुदवाये थे। पर उन गड्ढो की सफाई का प्रबंध तो ऐसे अवसर पर जो थोडे से वैतनिक भंगी मिल सकते थे उन्ही के द्वारा वे करा सकते थे न? इन गड़्ढो में जमा होने वाले पाखाने को समय समय पर ढंकने और दूसरी तरह से उन्हे साफ रखने का काम फीनिक्स की टुकड़ी के जिम्मे कर देने की मेरी माँग को डॉ. देव ने खुशी खुशी स्वीकार कर लिया। इस सेवा की माँग तो मैंने की, लेकिन इसे करने का बोझ मगनलाल गाँधी ने उठाया। मेरा धंधा अधिकतर डेरे के अन्दर बैठकर लोगों को 'दर्शन' देने का और आनेवाले अनेक यात्रियो के साथ धर्म की या ऐसी ही दूसरी चर्चाये करने का बन गया। मैं दर्शन देते देते अकुला उठा। मुझे उससे एक मिनट की फुरसत न मिलती थी। नहाने जाते समय भी दर्शनाभिलाषी मुझे अकेला न छोड़ते थे। फलाहार के समय तो एकान्त होता ही कैसे? अपने तम्बू के किसी भी हिस्से में मैं एक क्षण के लिए भी अकेला बैठ नहीं पाया। दक्षिण अफ्रीका में जो थोडी बहुत सेवा मुझसे बन पड़ी थी, उसका कितना गहरा प्रभाव सारे भारतखंड पर पड़ा है, इसका अनुभव मैंने हरद्वार में किया।
मैं तो चक्की के पाटो के बीच पिसने लगा। जहाँ प्रकट न होत वहाँ तीसरे दर्जे के यात्री के नाते कष्ट उठाता और जहाँ ठहरता वहाँ दर्शनार्थियों के प्रेम से अकुला उठता। मेरे लिए यह कहना प्रायः कठिन है कि दो में से कौन सी स्थिति अधिक दयाजनक है। दर्शनार्थियो के प्रेम प्रदर्शन से मुझे बहुत बार गुस्सा आया है, और मन में तो उससे भी अधिक बार मैं दुःखी हुआ हूँ, इतना मैं जानता हूँ। तीसरे दर्जे की कठिनाइयों से मुझे असुविधा हुई है, पर क्रोध शायद ही कभी आया है, और उससे मेरी उन्नति ही हुई है।
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