जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
1 पाठकों को प्रिय |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
लगभग दस साल की उमर में पोरबन्दर में ब्राह्मणो के जनेऊ में बँधी हुई चाबियो की झंकार सुनकर मुझे उनसे ईर्ष्या होती थी। मैं सोचा करता था कि झंकार करने वाली कुंजियाँ करने वाली कुंजियाँ जनेऊ में बाँधकर मैं भी धूमूँ तो कितना अच्छा हो ! उन दिनो काठियावाड के वैश्य परिवारो में जनेऊ पहनने का रिवाज नहीं था। पर पहले तीन वर्णो को जनेऊ पहनना चाहिये, इस आशय का नया प्रचार चल रहा था। उसके फलस्वरूप गाँधी कुटुम्ब के कुछ क्यक्ति जनेऊ पहनने लगे थे। जो ब्राह्मण हम दो तीन भाइयो को रामरक्षा का पाठ सिखाते थे, उन्होंने हमें जनेऊ पहनाया और अपने पास कुंजी रखने का कोई कारण न होते हुए भी मैंने दो तीन कुंजियाँ उसमें लटका लीं। जनेऊ के टूट जाने पर उसका मोह उतर गया था या नहीं, सो तो याद नहीं है। पर मैंने नया जनेऊ नहीं पहना।
बड़ी उमर होने पर हिन्दुस्तान और दक्षिण अफ्रीका में भी दूसरो ने मुझे जनेऊ पहनाने का प्रयत्न किया था, पर मेरे ऊपर दलीलो का कोई असर न हुआ था। यदि शुद्र जनेऊ न पहन सकें तो दूसरे वर्ण क्यों पहने? जिस बाह्य वस्तु की प्रथा हमारे कुटुम्ब में नहीं थी, उसे आरंभ करने का मुझे एक भी सबल कारण नहीं मिला था। मेरा जनेऊ पहनने से कोई विरोध नहीं था, परन्तु उसे पहनने का कोई कारण नहीं दिखाई देता था। वैष्णव होने के कारण मैं कंठी पहनता था। शिखा तो गुरूजन हम भाइयो के सिर पर रखवाते ही थे। पर विलायत जाने के समय मैंने इस शरम के मारे शिखा कटा दी थी कि वहाँ सिर खुला रखना होगा, गोरे शिखा को देखकर हँसेगे और मुझे जंगली समझेगे। मेरे साथ रहनेवाले मेरे भतीजे छगनलाल गाँधी दक्षिण अफ्रीका में बड़ी श्रद्धा से शिखा रखते थे। यह शिखा उनके सार्वजनिक काम में बाधक होगी, इस भ्रम के कारण मैंने उसका मन दुखाकर भी उसे कटवा दिया था। यों शिखा रखने में मुझे शरम लगती थी।
|