जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने जवाब दिया, 'मुझे तो लगता हैं कि विलायत जाने में लेशमात्र भी अधर्म नहीं हैं। मुझे तो वहाँ जाकर विद्याध्ययन ही करना हैं। फिर जिन बातों का आपको डर हैं, उनसे दूर रहने की प्रतिक्षा मैंने अपनी माताजी के सम्मुख ली हैं, इसलिए मैं उनसे दूर रह सकूँगा।'
सरपंच बोले: 'पर हम तुझसे कहते हैं कि वहाँ धर्म की रक्षा नहीं हो ही नहीं सकती। तू जानता है कि तेरे पिताजी के साथ मेरा कैसा सम्बन्ध था। तुझे मेरी बात माननी चाहिये।'
मैंने जवाब में कहा, 'आपके साथ के सम्बन्ध को मैं जानता हूँ। आप मेरे पिता के समान हैं। पर इस बारे में मैं लाचार हूँ। विलायत जाने का अपना निश्चय मैं बदल नहीं सकता। जो विद्वान ब्राह्मण मेरे पिता के मित्र और सलाहकार हैं, वे मानते मानते हैं कि मेरे विलायत जाने में कोई दोष नहीं हैं। मुझे अपनी माताजी और अपने भाई की अनुमति भी मिल चुकी हैं।'
'पर तू जाति का हुक्म नहीं मानेगा?'
'मैं लाचार हूँ। मेरा ख्याल हैं कि इसमें जाति को दखल नहीं देना चाहिये।'
इस जवाब से सरपंच गुस्सा हुए। मुझे दो-चार बाते सुनायीं। मैं स्वस्थ बैठा रहा। सरपंच ने आदेश दिया, 'यह लड़का आज से जातिच्युत माना जायेगा। जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे बिदा करने जायेगा, पंच उससे जवाब तलब करेगे और उससे सवा रुपया दण्ड का लिया जायेगा।'
मुझ पर इस निर्णय का कोई असर नहीं हुआ। मैंने सरपंच से बिदा ली। अब सोचना यह था कि इस निर्णय का मेरे भाई पर क्या असर होगा। कहीं वे डर गये तो? सौभाग्य से वे दृढ़ रहे और जाति के निर्णय के बावजूद वे मुझे विलायत जाने से नहीं रोकेंगे।
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