लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

महात्मा गाँधी की आत्मकथा


इस भाषण से मैं ललचाया। इस डर से कि कहीं मुझे अपने घर में ठहराने से गयाबाबू कठिनाई में न पड़ जाये, मुझे संकोच हो रहा था। पर गयाबाबू ने मुझे निश्चिन्त कर दिया।

मैं गयाबाबू के घर गया। उन्होंने और उनके परिवारवालो ने मुझे अपने प्रेम से सराबोर कर दिया।

ब्रजकिशोरबाबू दरभंगा से आये। राजेन्द्रबाबू पुरी से आये। यहाँ जिन्हे देखा वे लखनऊवाले ब्रजकिशोरप्रसाद नहीं थे। उनमें बिहारवासी की नम्रता, सादगी, भलमनसी, असाधारण श्रद्धा देखकर मेरा हृदय हर्ष से छलक उठा। बिहार के वकील मंडल का आदर भाव देखकर मुझे सानन्द आश्चर्य हुआ।

इस मंडल के और मेरे बीच जीवनभर की गाँठ बंध गयी।

ब्रजकिशोरबाबू ने मुझे सारी हकीकत की जानकारी दी। वे गरीब किसाने के लिए मुकदमे लड़ते थे। ऐसे दो मुकदमे चल रहे थे। इस तरह मुकदमो की पैरवी करके वे थोड़ा व्यक्तिगत आश्वासन प्राप्त कर लिया करते थे। कभी-कभी उसमें भी विफल हो जाते थे। इन भोले किसानो से फीस तो वे लेते ही थे। त्यागी होते हुए भी ब्रजकिशोरबाबू अथवा राजेन्द्रबाबू मेंहनताना लेने में कभी संकोच नहीं करते थे। उनकी दलील यह थी कि पेशे के काम में मेंहनताना न ले, तो उनका घरखर्च न चले और वे लोगों की मदद भी न कर सकें। उनके मेंहनताने के और बंगाल तथा बिहार के बारिस्टरो को दिये जानेवाले मेंहनताने के कल्पना में न आ सकनेवाले आंकड़े सुनकर मेरा दम घुटने लगा।

' ... साहब को हमने ओपिनियन (सम्मति) के लिए दस हजार रूपये दिये।' हजारों के सिवा तो मैंने बात ही न सुनी।

इस मित्र मड़ली ने इस विषय में मेरा मीठा उलाहना प्रेमपूर्वक सुन लिया। उसका उन्होंने गलत अर्थ नहीं लगाया।

मैंने कहा, 'इन मुकदमो को पढ़ जाने के बाद मेरी राय तो यह बनी है कि अब हमे मुकदमे लड़ना ही बन्द कर देना चाहिये। ऐसे मुकदमो से लाभ बहुत कम होता है। यहाँ रैयत इतनी कुचली गई है, जहाँ सब इतने भयभीत रहते है, वहाँ कचहरियो की मारफत थोड़ा ही इलाज हो सकता है। लोगों के लिए सच्ची दवा तो उनके डर को भगाना है। जब तक यह तीन कठिया प्रथा रद्द न ही, तब तक हम चैन से बैठ ही नहीं सकते। मैं तो दो दिन में जितना देखा जा सके उतना देखने आया हूँ। लेकिन अब देख रहा हूँ कि यह काम तो दो वर्ष भी ले सकता है। इतना समय भी लगे तो मैं देने को तैयार हूँ। मुझे यह तो सूझ रहा है कि इस काम के लिए क्या करना चाहिये। लेकिन इसमे आपकी मदद जरूरी है।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book