जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मजदूरों के सम्पर्क में
चम्पारन में अभी मैं समिति के काम को समेट ही रहा था कि इतने में खेड़ा से मोहनलाल पंडया और शंकरलाला परीख का पत्र आया कि खेड़ा जिले में फसल नष्ट हो गयी हैं और लगान माफ कराने की जरूरत हैं। उन्होंने आग्रह पूर्वक लिखा कि मैं वहाँ पहुँचू और लोगों की रहनुमाई करूँ। मौके पर जाँच किये बिना कोई सलाह देने की मेरी इच्छा नहीं थी, न मुझे में वैसी शक्ति या हिम्मत ही थी।
दूसरी ओर से श्री अनसुयाबाई का पत्र उनके मजदूर संघ के बारे में आया था। मजदूरो की तनख्वाहे कम थी। तनख्वाह बढाने की उनकी माँग बहुत पुरानी थी। इस मामले में उनकी रहनुमाई करने का उत्साह मुझ में था। लेकिन मुझ में यह क्षमता न थी कि इस अपेक्षाकृत छोटे प्रतीत होने वाले काम को भी मैं दूर बैठकर कर सकूँ। इसलिए मौका मिलते ही मैं पहले अहमदाबाद पहुँचा। मैंने यह सोचा कि दोनों मामलो की जाँच करके थोड़े समय में मैं वापस चम्पारन पहुँचूगा और वहाँ के रचनात्मक काम की देखरेख करूँगा।
पर अहमदाबाद पहुँचने के बाद वहाँ ऐसे काम निकल आये कि मैं कुछ समय तक चम्पारन नहीं जा सका और जो पाठशालाये वहाँ चल रही थी वे एक एक करके बन्द हो गयी। साथियो ने और मैंने कितने ही हवाई किले रचे थे, पर बस कुछ समय के लिए तो वे सब ढह ही गये।
चम्पारन में ग्राम पाठशालाओ और ग्राम सुधार के अलावा गोरक्षा की काम भी मैंने हाथ में लिखा था। गोरक्षा और हिन्दी प्रचार के काम का इजारा मारवाडी भाइयों ने ले रखा है, इसे मैं अपने भ्रमण में देख चुका था। बेतिया में एक मारवाड़ी सज्जन ने अपनी धर्मशाला में मुझे आश्रय दिया था। बेतिया के मारवाड़ी सज्जनोंं ने मुझे अपनी गोरक्षा के काम में फाँद लिया था। गोरक्षा के विषय में मेरी जो कल्पना आज है, वही उस समय बन चुकी थी। गोरक्षा का अर्थ है, गोवंश की वृद्धि, गोजाति का सुधार, बैल से मर्यादित काम लेना, गोशाला को आदर्श दुग्धालय बनाना, आदि आदि। इस काम में मारवाडी भाइयो ने पूरी मदद देने का आश्वासन दिया था। पर मैं चम्पारन में स्थिर होकर रह न सका, इसलिए वह काम अधूरा ही रह गया।
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