जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मैंने कहा, 'मैंन सुना हैं कि वहाँ लोग माँसाहार के बिना रह सकते हैं।'
वे बोले, 'इसे गलत समझो। अपने परिचितों में मैं ऐसे किसी आदमी को नहीं जानता, जो माँस न खाता हो। सुनों, मैं शराब पीता हूँ, पर तुम्हें पीने के लिए नहीँ कह सकता। लेकिन मैं समझता हूँ कि तुम्हें माँस को खाना ही चाहिये। '
मैंने कहा, 'इस सलाह के लिए मैं आपका आभार मानता हूँ, पर माँस न खाने के लिए मैं अपनी माताजी से वचनबद्ध हूँ। इस कारण मैं माँस नहीँ खा सकता। अगर उसके बिना काम न चला तो मैं वापस हिन्दुस्तान चला जाऊँगा, पर माँस तो कभी न खाऊँगा।'
बिस्के की खाड़ी आयी। वहाँ भी मुझे न तो माँस की जरुरत मालूम हूई और न मदिरा की। मुझसे कहा गया कि मैं माँस न खाने के प्रमाण पत्र इक्टठा कर लूँ। इसलिए इन अंग्रेज मित्र से मैंने प्रमाण पत्र माँगा। उन्होंने खुशी-खुशी दे दिया। कुछ समय तक मैं उसे धन की तरह संभाले रहा। बाद में मुझे पता चला कि प्रमाण-पत्र तो माँस खाते हुए भी प्राप्त किये जा सकते है। इसलिए उनके बारे में मेरा मोह नष्ट हो गया। अगर मेरी बात पर भरोसा नहीं हैं तो ऐसे मामले में प्रमाण -पत्र दिखा कर मुझे क्या लाभ हो सकता हैं?
दुःख-सुख सहते हुए यात्रा समाप्त करके हम साउदेम्प्टन बन्दरगाह पर पहुँचे। मुझे याद हैं कि उस दिन शनिवार था। जहाज पर मैं काली पोशाक पहनता था। मित्रों ने मेरे लिए सफेद फलालैन के कोट-पतलून भी बनवा दिये थे। उन्हें मैंने विलायत में उतरते समय पहनने का विचार कर रखा था, यह समझकर कि सफेद कपड़े अधिक अच्छे लगेगे ! मैं फलालैन का सूट पहनकर उतरा। मैंने वहाँ इस पोशाक में एक अपने को ही देखा। मेरी पेटियाँ और उनकी चाबियाँ तो ग्रिण्डले कम्पनी के एजेण्ट ले गये थे। सबकी तरह मुझे भी करना चाहिये, यह सोच कर मैं तो अपनी चाबियों भी दे दी थी।
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